६१४ गीता-हृदय दरवाजे होते है, वही दशा यहाँ रूपकके रूपमें बताई गई है। शरीर ही वह गढ है। चक्षु, श्रोत्र, नासिकाके छे छिद्र, मुख और मल-मूत्र त्यागके छिद्र यही नी दरवाजे है । जीवात्मा गढका मालिक है और मन उसका मत्री है । इन्द्रियाँ नौकर-चाकर है। वशी कहनेके मानी यही है कि वह सभी नौकर, मत्री आदिपर अकुश रखता और सतर्क रहता है। इसीलिये विवेकसे काम लेके मनसे ही कर्मोका सन्यास कर डालता है । क्योकि इन्द्रियाँ ही तो दरअसल कर्म करती है। विवेक न होनेसे सभी कर्मोको अपने आपमे मानता था। अब विवेक होनेसे मनने उन कर्मोको आत्मासे अलग करके जहाँ वे वस्तुत है वही मान लिया । यही हुआ सन्यास । देही कहनेके मानी है कि जीते जी यह काम करना पड़ता है। नही तो मरनेपर छुटकारा हो न सकेगा। पुर या गांवमें रहनेकी वातका मतलब यह है कि जव शरीरादिके कर्मोको अपनेमे मानता था तो शरीरके साथ अपने-आपको एक करके कहता और समझता था कि घरमे हूँ, पलगपर हूँ, गाडीमे हूँ, आदि-आदि। अब जब शरीरादिसे अपनेको जुदा समझ गया तो कहता और समझता है कि शरीर भले ही घरमें, वाहर या सवारीमें बैठे; लेकिन मै तो शरीरमे ही बैठा हूँ। न फर्तृत्व न फर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्मफलसंयोग स्वभावस्तु प्रवत्तंते ॥१४॥ (ऐसी दशामे) यह जीव सबका मालिक वन जानेपर न तो अपने आपमे कर्म करनेकी भावना लाता है, न लोगोंसे ही कर्म करवाता या करवानेका खयाल करता है और न कर्मोके फलोंसे सम्बन्ध या ताल्लुक ही पैदा करता है। (किन्तु) यह सब कुछ प्रकृतिके गुणोका ही पसारा है ।१४। नादत्त कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः । अज्ञानेनावृत ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥१५॥ -
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