पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६०७

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पाँचवाँ अध्याय ६१६ ही क्यो न किये जायें। उसी श्लोकमे प्रभु भी भगवानको कहा है । वही बाते इस श्लोकमें लिखी गई है । लिखनेका प्राशय यही है कि वास्तविक सन्यासी इधर-उधर न भटकके वस्तुत भगवानके ही खयालसे सब कुछ करता है, न कि देवी-देवताओके लिये । यह भी नही कि भगवान तानाशाह है । वह तो सबका सुहृद है, कल्याणकामी है। इसीलिये उसे अपनी आत्माका स्वरूप जान लेनेकी पहचान यही होगी कि हम भी सबके सुहृद बन जाये, हम भी "सर्वेऽपि सुखिन सन्तु"का अमली पाठ करने लगे। भागवतमे भी कहा है कि हम सभी भगवानके आदेशोमे, अपने स्वाभाविक कर्मोके द्वारा, इस तरह बँधे है जैसे बनियेके लादनेका बैल । इसीलिये जो कुछ भी हम करते है वह भगवानकी भेटके ही रूपमे, "यद्वाचि तत्यागुणकर्मदामभि सुदुस्तरर्वत्स वय सुयोजिता । सर्वे वहामो वलिमीश्वराय प्रोता नसीव द्विपदे चतुष्पद." (५।१।१४) । पूर्वके दो श्लोकोमें जो ध्यान और प्राणायाम है वह योगदर्शनके ही अनुसार है। योगी लोग भी मानते है कि दोनो भौ और नासिकाकी जडकी सन्धिमें नजर टिकानेसे मन एकाग्र होता है । प्राणायाम उसीमे सहायक होता है । यह भी माना जाता है कि प्राणायामसे जैसे मन एकाग्र होता है उसी तरह मनकी एकाग्रतासे प्राणोकी क्रिया भी स्वय बन्द हो जाती है। यहां दोनोको मिला दिया है । पचीसवे श्लोकमे जो “सर्वभूतहितेरता" कहा है उसका कुछ विवरण प्रकारान्तरसे पहले आ गया है। विशेष विवेचन आगे मिलेगा। इस अध्यायमे चार वार 'सम' आया है । उनमे आखिरी वार २७वें श्लोकमे मिलानेके अर्थमे है। शेष तीन वार १८-१६ में समदर्शनके मानीमे है, जिसे आत्मज्ञान कहते है। इस अध्यायमे सन्यासकी ही बात शुरु करके अन्ततक उसीका विवेचन होनेसे यही इसका विषय माना गया है । गकरने इस अध्यायका विषय