गीताका योग खीचेगा तो कभी फलेच्छा अपनी तरफ । इस खीचतानमे न तो वह कर्ममे जमेगा, न वह पूरा उतरेगा और न फल मिलेगा। दूसरी बात- दूसरा लाभ-इससे यह हुआ कि जहाँ पहले फल मिलनेपर या न मिलनेपर भी कर्म बन्धनका-जन्म-मरणका कारण होता था, तहाँ अव वह बात जाती रही। जैसे भाडमें डालनेपर अन्नमे-बीजमे-अकुर पैदा करनेकी ताकत जाती रहती है, वैसे ही इस योगके फलस्वरूप कर्मोंमे बन्धनकी ताकत रही नही जाती-वह खतम हो जाती है। दरअसल कर्मोका सस्कार मानसपटलपर जमने पाता ही नही। फिर वह जन्म-मरणमें फंसाये तो कैसे ? जन्म-मरणका तो अर्थ ही है कर्मोके करनेका सिलसिला जारी रहना । और इस सिलसिलेके लिये उसके सस्कार जरूरी है, जैसे बीजमें अकुरजननकी शक्ति । मगर यहाँ तो योगके चलते हम कर्मों के करने या न करने या उनके फलोसे कतई प्रभावित होते ही नही-तटस्थ या उदासीन रह जाते है । तब मानसपटलपर-जो निर्लेप बन गया है- सस्कार कैसे पैदा होगा ? संस्कारके लिये उदासीनताकी नही, किन्तु अनु- राग, मैत्री या लालसाकी जरूरत होती है । जिन चीजोसे हम उदासीन हो उनके सस्कार मनमे पैदा होते ही नहीं। हाँ, जिनमे मन लगा हो उनके सस्कार जरूर ही पैदा हो जाते है। यही कारण है कि इसी योगको कर्मका कौशल कहा है। यही तो कर्म करनेकी असली कला है-कर्म करनेका जादू है, कारीगरी है। जिस समत्वरूप योगका वर्णन अभी किया गया है उसके सम्बन्धमे अनेक बातें जाननेकी है। इसीलिये इसपर बहुत कुछ लिखना वाकी ही है । लेकिन आगे बढने के पहले यहीपर पूर्वोक्त ४७वे श्लोककी एक महत्त्वपूर्ण वात और भी जान लेना जरूरी है। कर्म करने और उसके त्यागनेका झमेला कुछ ऐसा है और इधर कुछ गीताके टीकाकारोने उसे इतना ज्यादा वढा दिया है कि हमे विवश होके यह लिखना पड़ रहा है ।
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