पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६२

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गीताका योग ४५ जिन दो पदार्थोके बीचमे एकपर यह जोर रहता है उन्हीमे दूसरेके साथ एकको यानी पहलेको बाँध देता है और बाकियोको, जिनकी सभावना हो, रोक देता है। इसे और भी साफ तौरसे यो समझे कि कर्मपर ही यहाँ जोर देनेके कारण उसीके अनुकूल या अधीन हक रहता है । कर्मकी ही प्रधानता रहती है। हक उसकी छातीपर बैठके उसे घसीट नहीं सकता। विपरीत इसके यदि अधिकार या हकपर जोर होता तो उसीकी प्रधानता होती और कर्मकी छातीपर बैठके वह अपने साथ यानी आदमीके साथ कर्मको घसीटता फिरता। तव कर्म किसी भी दशामे त्याज्य या त्यागने योग्य नही रह सकता। मगर वर्तमान दशामे तो हक ही त्याज्य नही है । कर्मका त्याग तो हो सकता है । जब हम कर्म करते है तो यह कोई नही कह सकता कि उसपर हमारा हक नही है। इस तरह देखते है कि इस ‘एव' शब्दका स्थान बदलनेसे दोनो श्लोकोके बाकी अशोंके साथ पहले चरणका कोई मेल होता ही नही । इतना लिखनेका हमारा मतलब दोनो श्लोकोके सभी अशोमे परस्पर मेल या सामञ्जस्य लाना नही है । यह तो गीताके रचयिताका ही काम था कि बेमेल बात न बोले । हम उस कविके वकील भी नही है कि जो कुछ त्रुटि मालूम हो उसे मिटानेकी वकालत करे। गीताके कर्ता व्यासको वकीलकी जरूरत ही न थी। वह तो खुद इतने योग्य थे कि ऐसी मोटी भूल कर सकते न थे। हमारा मतलब सिर्फ यह दिखलानेका है कि गीताके अनुसार कर्मकी प्रासक्ति या उससे खामखा लिपटना ठीक नहीं है। उसने कर्म और कर्मके सन्यास--दोनो ही-के लिये गुजाइश मानी है, दोनोके लिये पूरा स्थान रखा है। वे दोनो ही अपनी-अपनी जगहपर ठीक है, उचित है, कर्तव्य है । खूबी तो यह है कि जिस योगको लेके कुछ लोगोने इस वातपर जोर दिया है कि गीता तो सन्यासकी विरोधिनी है; वह तो कर्मपर ही जोर देती और उसीका समर्थन करती है, वही योग कर्म और