छठा अध्याय " घटेकी समाधिसे ही काम चल जायगा। यहाँ तो लगातार दिनो, हफ्तो, महीनो और बरसो करनेकी नौबत आयेगी। तब कही जाके सफलताकी आशा कर सकते है। बीचमे बहुत ही थोडा विराम कभी-कभी मिलेगा। आगे जो "अनेकजन्मससिद्ध (६।४५) और “यतचित्तेन्द्रियक्रिय (६।१२) लिखा है उसका आखिर दूसरा अर्थ है क्या ? इसी छठे अध्याय- को पढके भी जो यह कहनेकी हिम्मत करे कि ध्यान और समाधिके साथ ही वर्णाश्रमादिके धर्मोंका पालन भी हो सकता है उन्हे कुछ भी कहना बेकार है। तीसरे श्लोकके पूर्वार्द्धमे ज्ञानकी इच्छा और कामनाकी बात कही गई है। इसका पता आसान है और सबोको लगा सकता है। इसीलिये इसके बारेमे ज्यादा कुछ भी कहनेकी जरूरत नही। मगर योगारूढ होना और उसे पहचानना अत्यन्त कठिन है। बल्कि एक प्रकारसे यह बात असभव ही समझिये । यही कारण है कि चौथे श्लोकमें योगारूढका लक्षण, उसकी पहचान बताई गई है। इसका दूसरे शब्दोमे मतलब यह है कि जबतक वैसी दशा पूरी तौरसे न हो जाय तबतक ध्यान एव समाधि करते रहना और तदर्थ सभी कर्मोका पूर्णत सन्यास करना ही होगा। दूसरा रास्ता है नही। जबतक आत्मज्ञानकी इच्छा या आत्माकी जिज्ञासा नही पैदा होती तभी तक कर्म करना होगा। उसीसे वह जिज्ञासा होगी। मगर ज्योही यह जिज्ञासा पैदा होके दृढ हो गई कि कर्मोका स्वरूपत. त्याग करके ध्यान, धारणा, समाधिके द्वारा आत्मसाक्षात्कारकी सिद्धिमे फौरन लग जाना होगा। साक्षात्कार पूरा-पूरा होनेतक यह काम जारी रखना ही होगा, यही दोनो श्लोकोका तात्पर्य है। शायद यह खयाल हो कि इस प्रकार जीतेजी मुर्दा बननेकी क्या जरूरत है ? योगारूढ होना और मुर्दा बन जाना तो बराबर ही है । फर्क यही है कि मुर्देको कुछ मालूम नही पडता, चाहे जो कीजिये। मगर
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