६२८ गीता-हृदय योगारुढको तो होश होता है, जान होता है। फिर भी किमी सुख-दुखादि- को जरा भी अनुभव न करना यह अमाधारण बात है जो अमभव जमी है। इसीलिये तो जीतेजी मुर्दा बन जाना पडता है। फलत दूसरे ढगसे काम चल जाय तो इस योगास्नु होनेके मार्गको दूरसे ही सलाम कर लेना चाहिये । यह तो हो नहीं सकता कि परम कल्याण और मोक्षका कोई दूसरा रास्ता होई न । इसीलिये दूसरे ही मार्गका अवलम्बन क्यो न किया जाय ? नाहक ही इन्द्रियो और मनको सकटमें डालके उन्हींके द्वारा अपने श्रापको-यात्माको भी विपदामें डालना, सकटके अतल गर्तमे डुवाना मुनासिब नहीं है। इस तरहके विचार जनसाधारणके लिये वहुत मभव है। इसीलिये इस प्रमगको आगे बढाने और योगास्की अवस्थाका पूर्ण विवेनन करनेके पहले दो श्लोकोमे इस खयालको हटाते हुए कहा गया है कि इसके सिवाय मोक्षका और मार्ग हई नहीं। इसीलिये लाचारी है कि यही मार्ग अपनाया जाय। इससे आत्माको गर्तमें गिरानके वदले उलटे उसका उद्धार है। उद्धरेदात्मनात्मान नात्मानमवसादयेत् । प्रात्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन. ॥५॥ वन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मवात्मना जित.। अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्त्ततात्मैव शत्रुवत् ॥६॥ अपना उद्धार खुदवखुद करना चाहिये । आत्माको-~अपने आपको- सकटमें कभी न डालना-कभी नीचे न गिराना--चाहिये । क्योकि अपना मददगार या दुश्मन स्वय हर आदमी ही होता है । जिसने अपने मनको स्वय जीत लिया वही अपना मददगार है । जिसने मनपर काबू नही किया शत्रुताके मौकेपर (वही) मन (उसके)शत्रुका काम करता है ।५।६। जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः। शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयो. ॥७॥ .
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