छठा अध्याय युजीत" और "योग युज्यात्"का यह भी अभिप्राय है कि आत्मामे ही मनको लगाये, न कि और पदार्थमे । इसीलिये आगे जो "मच्चित" और "मत्पर." में (मत्) कहा है उसका भी अर्थ आत्मा ही है। नही तो आत्मासे अलग परमात्माका खयाल हो सकता था। 'मच्चित' और 'मत्पर' कहनेका आशय यही है कि एकमे चित्त लगाके कभी-कभी दूसरेका भी खयाल करने की बात यहाँ नहीं होगी। आत्माके सिवाय और किसीका भी खयाल न रहेगा। इसे ही अनन्य-चिन्तन भी कहते है। १३वे श्लोकमे एक बार तो धड, गर्दन और सरको अचल और तना हुआ रखना कहा है । फिर स्थिर होना भी बताया है। यह तो पुनरुक्ति ही हुई। इसीलिये हमने घबराहट और बेचैनी छोडनेकी बात लिखी है। ऐसी भी तो बेचैनी होती है कि शीघ्र ही काम पूरा हो जाय । वह न रहे इसी मानीमे स्थिर शब्द आया है । यो भी इस मानीमें बोला जाता है। इसी प्रकार जहाँ यहाँ नासिकाके अग्र भागमें नजर जमानेको लिखा है तहाँ पाँचवे अध्यायके अन्तमे भौगोके बीचमें जमानेकी बात है । असलमे योगियोके यहाँ ये दोनो ही बाते पाई जाती है। कोई एक करता है तो कोई दूसरी। इसीलिये दोनो ही लिखी गई है । भौगोकी बात आगे भी "भ्रुवोर्मध्ये" (८1१०) मे आयेगी। जिसकी जब जैसी रुचि, प्रवृत्ति या अनु- कूलता हो तब वह वैसा ही करता है। किन्तु परिणाम एक ही होता है । युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः । शान्ति निर्वाणपरभा मत्संस्थामधिगच्छति ॥१५॥ इस प्रकार निरन्तर आत्मामे मनको जोडता हुआ उसे सोलह आने काबूमे कर लेनेवाला योगी उस ब्रह्मनिष्ठा रूपी शान्तिको प्राप्त कर लेता है, जिसका अन्तिम परिणाम आवागमनसे छुटकारा है ।१५। नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकांतमनश्नतः। न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्नतो नैव चार्जुन ॥१६॥
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