? ६३२ गीता-हृदय जरा भी न हो, (खान-पान आदिमें ) ब्रह्मचारीके ही नियमोका पूरा पालन करे । मुझमें ही मन लगाये तथा मुझको ही सब कुछ समझे हुए मनको भरपूर काबूमे करके समाधिमे बैठे ।१३।१४। यहाँ जो दसवें श्लोकमें 'यतचित्तात्मा' कहके 'प्रात्मान युञ्जीत' भी कहा है इससे दोनोमें परस्पर विरोध जैसा लगता है। जब मन और बुद्धिको कावूमें कर लिया तो फिर मनके एकाग्र करनेका क्या सवाल यह या तो पुनरुक्ति जैसी हो जाती है, या यो कहिये कि एकका कहना बेकार है। मगर दरअसल मन-बुद्धिको सयत कहनेका यही अभिप्राय है कि पहले जैसी चचलता और घबराहट उनमें न रह गई है । वे कुछ ठडे पड गये है। तभी समाधिकी सफलता हो सकती है। या यह कि यतचित्तात्माका अर्थ है मन-बुद्धिकी क्रियाका रोकना मात्र । उसके बाद होनेवाली एकाग्रता "आत्मान युजीत"के द्वारा बताई गई। इसी तरह १२वेमे मनकी एकाग्रता और उसकी तथा इन्द्रियोकी क्रियाके रोकनेकी बात है। प्रश्न होता है कि मनकी एकाग्रताके बाद फिर उसकी क्रियाके रोकनेके क्या मानी ? बात असल यह है कि पहले जब मन कहीं एक चीजमें बँधेगा तभी तो उसकी तथा इन्द्रियोकी क्रिया भी रुकेगी। वस्तुत क्रिया रुकनेसे एकाग्रता और एकाग्रता से क्रियाका रुकना ये दोनो ही एक दूसरेके आश्रित है, ठीक वैसे ही जैसे प्राणके रोकनेसे मनका रुकना और मनके रुकनेसे प्राणका रुक जाना। आगे ३५वे श्लोकके व्याख्यानमें इसपर और भी लिखा गया है। अथवा “यत्तचित्तेन्द्रियक्रिय"में चित्तका अर्थ बुद्धि ही है, जैसा कि १०३मे । बुद्धिकी चचलताका भी रुकना आवश्यक है। इसीलिये जो अन्तमें पुनरपि "युज्याद्योगम्” लिखा है वह यद्यपि व्यर्थसा प्रतीत होता है, तथापि उसका अभिप्राय यही है कि योगकी पूर्णता और स्थायित्व प्राप्त करे। ऐसा न हो कि मनकी एकाग्रता चन्दरोजा ही हो । "आत्मान
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