छठा अध्याय यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया । यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥२०॥ सुखमात्यन्तिकं यत्तबुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् । वेत्ति यत्र न चैवाय स्थितश्चलति तत्त्वतः ॥२१॥ यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः । यस्मिन् स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥२२॥ तं विद्याद् दुःखसयोग-वियोगं योगसंज्ञितम् । स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिविण्णचेतसा ॥२३॥ जिस दशामें योगके अभ्यासके फलस्वरूप काबूमे आया हुआ मन शान्त और निश्चल हो जाता है, जिस दशामे अपने भीतर ही स्वयमेव अपनेको देखके पूर्ण सन्तोष हो जाता है, इन्द्रियोकी पहुँचके बाहर केवल बुद्धिसे अनुभव किया जानेवाला अपार सुख जिस दशामे जाना जाता है, जिस दशामें जम जानेपर मनुष्यकी आपा बिसर जाती है और उस वास्त- विक दशासे फिर वह च्युत भी नही होता है, जिसे पा जानेके बाद उससे बढके दूसरा कोई भी लाभ माना नही जाता और जिस दशामे स्थिर हो जानेपर बडेसे बडा भी कष्ट मनुष्यको विचलित नही कर सकता, दुःखके सम्बन्धको सदाके लिये मिटा देनेवाली उस दशाको ही योग शब्दसे सम- झना चाहिए। जो मन कभी ऊबना जानता ही नही उसीके द्वारा दृढ निश्चयके साथ उस योगकी सिद्धिका अभ्यास किया जाना चाहिये । २०१२११२२॥२३॥ यहाँ मनके न ऊबनेके बारेमे दृष्टान्त देते हुए गौडपादाचार्यने माडूक्योपनिषदकी कारिकाप्रोमे लिखा है कि एक ही कुशकी नोक डुबो- डुबोके बाहर छिडकते हुए ही समुद्रको सुखा डालनेकी हिम्मत जिसे हो वही मनको काबूमे कर सकता है, "उत्सेकउदधेर्यद्वत्कुशाग्नेणकविन्दुना । मनसो निग्रहस्तद्वद्भवेदपरिखेदत" (३।४१)। टिट्टिभ पक्षीके नर-
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