पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६२६

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गीता-हृदय मादेका अपनी चोचोंसे ही उलीचते-उलीचते समुद्रको सुखाके अपने अडे उसमेसे बाहर निकालनेके दृढ सकल्पका भी दृष्टान्त दिया जाता है। संकल्पप्रभवान्कामास्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः। मनसैवेन्द्रियग्राम विनियम्य समन्तत. ॥२४॥ शनैः शनैरुपरमेबुद्धया घृतिगृहीतया । प्रात्मसंस्थं मन कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ॥२५॥ यतो यतो निश्चरति मनश्चचलमस्थिरम् । ततस्ततो नियम्यंतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥२६॥ सकल्पसे पैदा होनेवाली सभी कामनाओको निर्मूल करके तथा मनसे ही सभी इन्द्रियोको चारो ओरसे रोकके धैर्य-सहकृत बुद्धिके बलसे धीरे- धीरे हर चीजसे मनको हटाये और आत्मामे टिकाके दूसरा कोई खयाल न करे । चचल होनेके कारण कही भी टिक न सकनेवाला मन जिस-जिस चीजको लेके बाहर भागे उस-उससे उसे हटाते हुए केवल आत्मामें ही लगाके कावूमें करे । २४।२५।२६। यहाँ धीरे-धीरे सब ओरसे हटाना और फिर भी यदि मन उधर भागे तो वहाँसे बार-बार लौटाना बताया गया है। असलमे समाधिके लिये यही व नियादी बात है । जो ऊवना जानता ही नही वही यह काम कर सकता है, ऐसा कहनेकी जरूरत इसीसे स्पष्ट हो जाती है । एकाएक न तो अन्य चीजोसे यह मनीराम हटी सकते और न हटनेपर भी फिर उनमें जानेसे वाज श्राई सकते है । यह तो नटखट वन्दर है। वडी हिम्मत और बडे भारी दृढ सकल्पसे ही इन्हें कावूमें किया जा सकता है । इसीलिये "स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिविण्णचेतसा" कहा है। प्रशान्तमनसं ह्येन योगिन सुखमुत्तमम् । उपति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् ॥२७॥ क्योकि विल्कुल ही शान्त मनवाले, शान्त या दबे-दबाये रजोगुणवाले,