पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६३२

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६४४ गीता-हृदय यही शिक्षा देती जो थी। इसलिये ज्ञानी होनेके लिये श्रीहीन या दरिद्र होना तो जरूरी नही है, अस्तु । और अगर उसकी प्रगति ऐसी ही तैसी थी, तब तो इस योगकी धुन होगी नही । फलत धनियोंके यहाँ ही जनमेगा। अच्छा, अब यदि श्रीमानका अर्थ "समाधि और योगके साधनोंसे सम्पन्न" यही करे तो क्या बुरा होगा? तब श्लोकका सीधा अर्थ यही होगा कि या तो जनक, मन्दालसा आदिके घर जन्म लेके वही अपना काम पूरा करता है, या अगर किसी वजहसे वहाँ ऐसा न हो सका तो प्रह्लाद आदिकी तरह वहाँसे भागके योगियोके समाजमे जा पहुंचता है और वही काम पूरा करता है। यहाँ कुल शब्द गुरुकुलके कुल जैसा ही मान ले तो क्या अच्छा हो-गुरुकुल और योगिकुल । क्योकि तब योगके अभ्यास करनेवालोका ही समाज होनेसे आसानी भी हो जाती है। इस श्लोकमें 'जायते' न लिखके 'भवति' लिखा है। यहाँ इसका भी अभिप्राय “जा पहुँचना" अच्छी तरह मेल खा जाता है। दो जन्म जुदा-जुदा मानके केवल दूसरेकी बडाई करनेकी अपेक्षा एक ही जन्म मानके उसीकी प्रशसा भी ठीक ही जंचती है। क्योकि अर्जुनका तो प्रश्न था योगभ्रप्टके ही बारेमें। अगर इसमे दो भाग करें तो पहले भागमे आनेवालेकी दशाका ठीक-ठीक पता कैसे चलेगा? ऐसा होने पर उत्तर भी अधूरा ही रह जायगा। अगर आगेवाले श्लोकोमे समान तौर पर दोनोकी ही बात मान लें तो वीचकी यह विभिन्नतावाली बात कुछ यो ही रह जाती है। ठीक जंचती भी नही। यदि ४४वें श्लोक पर गौर करें तो यह पता चलता है कि उसका मन पूर्व जन्मके अभ्यासके करते ही खिचके इस जन्ममे भी योगमें ही जा लगता है। ऐसी दशामें तो श्रीमानोके यहाँ जनमने पर भी योगमें ही लगेगा। फिर वह अपेक्षाकृत हल्के दर्जेका कैसे माना जाय बल्कि खिच जानेका मतलब हमारे ही वताये अर्थमे यो मेल भी खा जाता ?