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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६३३

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छठाँ अध्याय ६४५ है कि वहाँ गडबड होनेपर वहाँसे भागके योगियोके समाजमे जा पहुँचता है। समाज भी कोई बडा हो यह जरूरी नही है, जिससे बिघ्न बाधाकी बात उठ खडी होगी। वहाँ तो ऐसे ही लोग होगे जो योगकी ही धुनवाले है और वे होगे थोडे ही। यही पर प्रसगवश एक बात और भी कहे देते है। अर्जुनके प्रश्न और उसके उत्तर हमारे ढगसे तो ठीक मिल जाते है। जब वर्णाश्रमके सभी कर्म-धर्म उसने छोड रखे है तो उसके उभयभ्रष्ट होनेकी बात स्वय आ जाती है। कारण वे तो छूटे ही थे, अब योग भी छूट गया। परन्तु जो लोग यह बात नही मानते और बराबर यही चिल्लाते है कि गीताके मतसे धर्म-कर्मोको किसी भी दशामे छोड नही सकते वे इन प्रश्नोत्तरोको कैसे ठीक कहेगे ? उनके मतके अनुसार दोनो ओरसे भ्रष्ट होने या गिर जानेका सवाल आता ही कहाँ है ? वह जब मानते ही है कि योगके अभ्यास- के समय भी नित्य-नैमित्तिक आदि धर्मोंको वह योगी करता ही रहता है, तो फिर उनका फल कौन रोकेगा ? वह तो अवश्य ही मिलेगा। इसलिये योगका फल न भी मिला तो क्या मुजायका ? कर्मों का फल तो मिलेगा ही--एक तो मिलेगा ही। ऐसी दशामे दोनों तरफसे चौपट होने या भ्रष्ट होनेका प्रश्न उठता ही नही । यदि मान भी ले कि अर्जुनने भूलसे ही ऐसा कह दिया था, तो कृष्णको तो भूल सुधार लेना था। उन्हे चटपट पहले यही कहना था कि उभयभ्रष्टताकी बात तो गलत है। पीछे और बाते भी कह सकते थे। मगर ऐसा न कहके उनने भी तो मानी लिया कि यही बात है। इसलिये अगत्या कबूल करना ही होगा कि जो सन्यासी या योगी समाधिका अभ्यास करता है उसे कर्म-धर्म छोडना ही पडता है। उसके लिये कोई चारा हई नही । तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम् । यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन ॥४३॥