छठा अध्याय ६४७ लगन उसमे पैदा हो गई, तो फिर वह शास्त्रीय-विधि-विधानकी पर्वा क्यो करेगा ? कर्मकाडका तो प्रयोजन ही यही है कि यह लगन, यह उत्सुकता, यह धुन और यह जिज्ञासा पैदा हो जाय । यह तो पहले ही कहा जा चुका है । यह भी बताया जा चुका है कि शब्द ब्रह्मका अर्थ वेदशास्त्रादि ही है। और जब यह धुन और लगन पैदा हो गई, तो फिर उन कर्मों या कर्मोके प्रतिपादक वचनो और तन्मूलक आश्रमोकी पर्वा वह करेगा क्यो ? आत्मज्ञानी तो नही ही करता है। वह भी नहीं करता है यह मानी हुई बात है। यही कारण है कि उन वचनो पर अमल करनेके लिये जोर देनेवाले पिता, प्राचार्य आदि शासकोकी भी पर्वा वह नही करता । प्रह्लाद आदिके बारेमे यही बात पाई जाती है। उस पूर्व-अभ्यास और उससे उत्पन्न सस्कारकी यही तो अपूर्व शक्ति है । प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्विषः । अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम् ॥४५॥ (इस तरह) बहुत मुस्तैदीसे योगकी सिद्धि के लिये यत्न करनेवाला विशुद्धान्त करण योगी (लगातार) अनेक जन्मोके प्रयत्नसे ही वह सिद्धि (और) उसके फलस्वरूप परमगति प्राप्त कर लेता है ।४५। तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः । कमिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ॥४६॥ हे अर्जुन, यह योगी तपस्वियोसे भी श्रेष्ठ है, ज्ञानियोंसे भी बडा माना जाता है और कर्मियोंसे भी ऊँचा स्थान रखता है । इसलिये तुम (जरूर ही) योगी बनो ।४६। यहाँ बहुत गहरे पानीमे उतरनेकी जरूरत नहीं है, हालाँ- कि कुछ लोगोने इसकी बडी कोशिश की है। यहाँ खीचतानकी अपेक्षा सीधा अर्थ ही ठीक ऊँच जाता है। सत्रहवे अध्यायके "देवद्विजगुरुप्राज्ञ" आदि (१७।१४-१६) श्लोकोमे जिन तीन प्रकारके तपोको गिनाया है
पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६३५
दिखावट