६४८ गीता-हृदय उन्हीके करनेवाले तपस्वी हुए । ज्ञान और विज्ञानका विभेद बताते हुए पहले ही कह चुके है कि सिर्फ पढ-सुनके जो जानकारी किसी बातकी हो जाती है वही है ज्ञान और उसे जिनने प्राप्त कर लिया वही हुए ज्ञानी । सभी प्रकारके श्रौत-स्मार्त या दूसरे ही सत्कर्मोके करनेवाले हो गये कर्मी। मगर इन तीनोंसे ही तो काम पूरा होता नही । आत्माके साक्षात्कारके लिये, जिसे विज्ञान भी कहते है, कुछ और भी विशेष यत्न और उपाय करने होते है, जिन्हे निदिध्यासन, ध्यान, योग या समावि कहते है। इन्हें करनेवाले ही योगी कहे गये है। इससे साफ है कि योगी का काम है इन तीनोकी कमियोको पूरा करना । ये तीनो योगीके लिये मार्ग साफ करते है, योगकी तैयारी करते है। यह तो योगी हीका काम है कि उस योगको पूरा करे । वही आखिरी सीढी है। उस पर चढना ही होगा। तभी लक्ष्य स्थान पर पहुँच सकेंगे। इसलिये योगीको सबोंसे श्रेष्ठ कहना सर्वथा युक्ति सगत एव उचित है। इस तरह कहने के लिये तो योगीको सबसे ऊंचा बना दिया। मगर आखिर योगी भी तो सभी प्रकारके होते है। पूर्णयोग या योगकी सिद्धिके पहले जाने कितनी ही छोटी-मोटी सीढियोंसे उसी योगकी दशामें ही गुजरना पड़ता है, जैसा कि "शन गर्न" और "अनेकजन्मससिद्ध "से स्पष्ट है । इसलिये इन सब हालतोसे सफलतापूर्वक गुजरते हुए यदि ब्रह्मानन्दमें गोते लगाने है तो दो वातें अनिवार्य रूपसे आवश्यक है। एक तो अपने लक्ष्यकी प्राप्तिमे अटल विश्वास, जिसे श्रद्धा कहते है। यह विश्वास जब किसी भी हालतमें जरा भी डिग न सके तभी लक्ष्य-सिद्धि हो सकती है। यही वात पहले "योगोऽनिविण्णचेतसा"में कही गई है। दूसरी यह कि वह लत्य अद्वैत ब्रह्मका साक्षात्कार ही है, अपनी ही प्रात्माको सवमें प्रोत-प्रोत देखना ही है, इसी निश्चयके साथ शुरूसे ही पूरी लगन और धुनके साथ मनको उसीमें लगाया जाय । इसीको भजन कहते हैं।
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