पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

संन्यास और त्याग ४६ -- "इस प्रकार आत्मज्ञान या आत्माकी प्राप्ति हो जानेपर ही कर्मोकी वन्धनशक्ति जाती रहती है।" पाँचवे अध्यायके उक्त श्लोकका तो साफ ही मतलब है कि “सन्यास- की प्राप्ति तो कर्म (योग) के बिना अत्यन्त कष्टसाध्य-अर्थात् असभव- है। विपरीत इसके जो मननशील विवेकी कर्म करता है वह शीघ्र ही सन्यासके योग्य होके उसे प्राप्त कर लेता है।" इसमे इस बातकी पुष्टि कर दी गई है कि सन्यासके लिये कर्म करना जरूरी है। इसीलिये कर्मके विना वह प्राप्त होता नही और कर्मसे हो जाता है । कारण तो उसे ही कहते है जिसके बिना चीज होई न और जिसके रहनेपर अवश्य हो जाय । इसीको राने लोगोने अन्वय और व्यतिरेक कहा है। इस श्लोकके चौथे चरणमे सन्यास न लिखके यद्यपि ब्रह्म लिखा है, तथापि ब्रह्मका अभिप्राय सन्यास ही है । श्लोकके शेष तीन चरणोसे यह बात साफ हो जाती है । इसके पहले जो कई श्लोक आये है उन्हे गौरसे पढ़नेसे भी यही अभिप्राय निकलता है । इसके सिर्फ दो दृष्टान्त तासे ही देनेसे बात साफ हो जायगी। संन्यास और त्याग अठारहवे अध्यायमे 'नियतस्य तु सन्यास कर्मणो नोपपद्यते । मोहात्तस्य परित्यागस्तामस परिकीर्तितः” (७) और "अनिष्टमिष्ट मिश्र च त्रिविध कर्मण फलम् । भवत्यत्यागिना प्रेत्य न तु सन्यासिना क्वचित्” (१२), ये श्लोक आये है। इन दोनोमे ही 'सन्यास' और 'त्याग' या 'सन्यासी' तथा 'त्यागी' शब्द आये है। इस अध्यायके पहले ही श्लोकमे जो प्रश्न किया गया है उससे स्पष्ट है कि सन्यास और त्याग दो चीजे है। इसीलिये दोनोकी हकीकत अलग-अलग जाननेके खयाल- से ही सवाल किया गया है । फलत. यह धारणा स्वभावतः हो जाती ४