सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गीता-हृदय है कि प्रागेके श्लोकोमें जहाँ कही ये दोनो शब्द आये है, अलग-अलग मानीमे ही प्रयुक्त हुए है। मगर है यह वात गलत—यह धारणा निरा- धार है। यह ठोक है कि अठारहवें अध्यायमें त्याग और सन्यासके स्वरूप अलग-अलग वताये गये है और हम भी उनके बारेमे कुछ न कुछ कहेंगे। फिर भी उसका मतलव शब्दोके अर्थसे नही है। इन दोनो शब्दोका अर्थ तो अकसर एक ही माना जाता है। और गोतामे एक ही अर्थमे दोनो ही प्राय वोले गये है। फर्क तो त्याग और सन्यास नामकी चीजो- को भीतरी वातोको लेकर ही माना जाता है। ऊपरसे एक होने पर भी भोतरसे इनमे कुछ वारीक भेद है-आमतौरसे पुराने लोगोने कुछ भेद इनमे किया है। उसीके जाननेके लिये शुरूमे प्रश्न किया गया है और जवाव भी दिया गया है । फलत यदि भ्रान्त धारणाको जुदा करके या हटाके हम देखें तो पता लगेगा कि पूर्व लिखे ७वे और १२वें श्लोकोंमें त्याग तथा सन्यास एक ही अर्थमे प्रयुक्त हुए है और एककी जगह दूसरेको बदल देनेसे अर्थमे कोई फर्क न पडके और भी स्पष्टता हो जायगी। पहले श्लोक- का सोधा अर्थ यही है कि "किसीके भी लिये जो कर्म निश्चित कर दिये गये है उनका सन्यास उचित नहीं है, और अगर भूल या धोकेमे पडके उनका त्याग कर दिया जाय तो वह तामस (तमोगुणी) त्याग माना जाता है।" यहाँ पहले वाक्यमे जिस मानीमें सन्यास शब्द आया है, दूसरेमें उमी मानीमै त्याग शब्द है। दूसरा मानी सभव नही है। इसीलिये पहले लिखे सन्यास शब्दके ही अनुसार त्यागका भी अर्थ आगे लगता है। विपरीत इसके १२वे श्लोकके उत्तरार्द्धमे पहले त्यागी (त्यागिनाम्) लिखके पीछे सन्यासी (सन्यासिनाम्) लिखा है। श्लोकका अर्थ मिर्फ यही है कि "बुरे, भले और मिश्रित-तीन प्रकारके जो फल कोक होते है वह उन्हीको मिलते है जो त्यागी नही है, सन्यासियोको तो ये -