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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६४५

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सातवाँ अध्याय 29 पडा कि मैं उनमे नही हूँ, किन्तु वही मुझमे है-वे मेरे आधार नही है, किन्तु मै उनका आधार हूँ। पदार्थोको आधार माननेसे अन्ततोगत्वा उनका स्वतत्र अस्तित्व मानना ही पड़ता और इस तरह अद्वैतवाद या सर्व- भूतात्मभूतात्मावाला गीताधर्म लागू हो पाता नही। इसलिये ऐसा कहना जरूरी हो गया। इस कथनका तात्पर्य यही है कि इस प्रकार हर पदार्थोका विश्लेषण करते-करते अन्तम इनका पता कुछ नही लगता । एक आत्मरूपी परमात्मा ही सवोके मलमे रह जाता है। उसीमे इनकी कल्पना सपनेकी तरह हुई है। इसीलिये इन्हे देखके इनके मूलका अन्वेषण करनेसे ही काम चलेगा जो इनमे न होके इनसे स्वतत्र है। इसका विस्तृत विवेचन छान्दो- ग्योपनिषदके छठे अध्यायके आठवे खडमे आया है। वहाँ बार-बार लिखा है कि "अन्नेन शुगेनापोमूलमन्विच्छाद्भि सोम्य शुगेन तेजो मूल- मन्विच्छतेजसा सोम्य शुगेन सन्मूलमन्विच्छ सन्मूला सोम्येमा प्रजाः सदायतना सत्प्रतिष्ठा अन्तम सात्त्विक आदि गन्दोसे जो भौतिक पदार्थोको याद किया है उसका दूसरा प्रयोजन भी है। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि ऐसी जानकारी नबोको क्यो नहीं होती? इसका समाधान जरूरी है। यो तो तीनो गुणोके भीतर जगन् पाई जाता है । फिर भी इन त्रिगुणात्मक पदार्थोकी यह सबी है कि ये अपने भीतर ही लोगोको फंसा लेते है। इनके फंसानेके कौन-कौनमे तरीके है यह बात गुणवादमे विस्तृत रूपसे कही जा चुकी है। नतीजा यह होना है कि इनसे आगे हम बढने पाते ही नहीं। इनका फन्दा ऐना ही जो ठहा । लोभी बनिये की तरह हम बारह महीने, तीस दिन बीर जीवनभर यही मोचने रह जाते है कि बच्चोंके लिये थोडा यह कर लें, वह पर ले, तो फिर भगवानको याद करने कही अलग चलेगे। जरा मन्दिर बना गं नीनार ने, दान-पुण्य कर ले, कथा-गर्ता मुन ले, तो फिर विगगी नंगे। ना ही मोनने नोचने और करने-करने जीवन खत्म .