पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(विपरीत इसके) जो मनुष्योमे अधम, दुष्कर्मी, आसुरी प्रकृतिवाले गीता-हृदय ६६२ हो जाता है और आगे बढ पाते नही । इसीलिये कह दिया है कि इन पदार्थोमें मै नही हूँ, यही मुझमे है। इन्हे छोडो तो मुझे पायोगे । बिना ऐसा किये आत्मा-परमात्माको पहचानना असभव है। ये मायाके ही गुण और पदार्थ है और माया तो ठगनेवाली ही ठहरी न? उसने उसी रस्मीमें फाँस लिया है। उसकी हजार चालें है। जबतक इनसे हटके परमात्माकी ओर विल्कुल ही लग न जाये तबतक न तो मायासे-इस बडी नीदसे- पिंड ही छूटेगा, न जगेंहीगे और न इन पदार्थोका पूर्वोक्त रहस्य समझ सकेगे। यही बात आगेके श्लोकोमे कही गई है। वहाँ इस जगनेका, इस ज्ञानका महत्त्व सुझाया गया है। यह भी बताया गया है कि परमात्मा- की ओर मुखातिब होनेवाले भी लोग भटक जाते है। इसलिये मजग रहना होगा। त्रिभिर्गुणमयविरेभिः सर्वमिदं जगत् । मोहित नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ॥१३॥ इन त्रिगुणात्मक पदार्थोमें ही फंसके भूला हुआ यह ससार इनमे निराले और अविनाशी मुझ भगवानको ठीक-ठीक समझ पाता नहीं ।१३। दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेता तरन्ति ते ॥१४॥ (ऐसा इसीलिये होता है कि) विलक्षण चमत्कारवाली, जिसमे पार न पाया जा सके ऐसी (तथा) अनेक गुणो-फंसानेके सायनो- वाली मेरी माया ही तो आखिर यह सब कुछ है । (इसीलिये) जो लो, केवल मुझ परमात्मामे ही लग जाते है वही इस मायासे पार पाते है ।१॥ न मां दुष्कृतिनो मूढा. प्रपद्यन्ते नराधमा । माययापहृतज्ञाना प्रासुर भावमाश्रिता ॥१५॥