पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६५४

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६७० गीता-हृदय विमूढता या भ्रम या अज्ञान । यह बात जन्मके साथ ही होती है। फिर तो ये रागद्वेप जरा भी मौका नहीं देते कि हम सँभल सकें। यही वात 'सर्गे याति' (७।२७) में कही गई है। इसीलिये शुरूसे ही इससे पिंड छूटनेपर मन भगवानमें जा सकता है यह बात २८वें श्लोकमें आई है। ताकि इन्हें खत्म करनेमे हम जनमते ही लग पडे । अब फिर पुराने प्रसग यानी २५वें श्लोककी बातको पकडके आगे वढते है। क्योकि बीचके तीन श्लोक प्रसगवश ही आये थे। हां, तो यह समस्त ससार ब्रह्मरूप ही है यही बात चलती थी। अगर शुरुके चार (८-११) श्लोकोपर, जिनमे खास पदार्थोका वर्णन आया है, गौर करे तो पता चलेगा कि उन्हें तीन दलोमें बाँट सकते है, जिन्हें पुराने लोगोने आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक कहा है । पृथिवी, जल, अग्नि और आकाश तो भूत है। इसीलिये इनके गन्ध, रस आदिका वर्णन आधिभौतिक हुआ। क्योकि गन्ध, रसादि भूतोमे ही रहते है । अत अधिभूत हो गये । इसी प्रकार चन्द्र और सूर्यकी वात आधिदैविक हो गई और बुद्धि, बल, तेज, तप, जीवन और काम ये छे हो गये आध्यात्मिक । शरीरके भीतर ही तो ये पाये जाते है। यह भी एक कारण है कि वायुको भूतमे न रखके जीवनके रूपमें यही रख दिया है। नहीं तो दो बार कहना पडता। क्योकि अध्यात्ममे प्राण जैसी प्रसिद्ध चीजको छोड नहीं सकते थे। उपनिषदोमे भी उसे कही नही छोडा है । चन्द्र-सूर्यमे चमक और दिव्यतेज होनेसे उनका दल आधिदैविक हई। इन प्राध्यात्मिक आदि चीजोपर विशेष प्रकाश पहले ही डाला जा चुका है। वही यह भी बताया गया है कि अधियन नामकी चौथी चीज क्यो और कैसे आई है। यह भी बता चुके है कि किस प्रकार सुख-दुख, बल, वृद्धिसे बढते-बढते आत्माको ही अन्तमे अध्यात्म मानने लगे। ब्रह्मकी बात तो वार-बार सर्वत्र आई ही है और कर्मकी भी। "प्रणव सर्ववेदेषु" कहने से भी इस कर्मकी तरफ