पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६५५

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सातवाँ अध्याय ६७१ इशारा होता है । क्योकि “ब्रह्मणोमुखे" कहके वेदोमे कर्मोकी ही प्रधानता मानी है। इस प्रकार अधिभूत, अध्यात्म, अधियज्ञ, अधिदैव आदिके रूपमे जो लोग ब्रह्मका निरन्तर मनन करते है वही विज्ञानके अधिकारी होते है। इसीलिये इस सातवे अध्यायमे सक्षेपसे अध्यात्म आदिका उल्लेख नमूनेके तौरपर ही हुआ है । मनन करनेवाले इसी नमूनेको बढाके हजारो पदार्थोमे इस बातका मनन-चिन्तन कर सकते है और अन्तमे अद्वैत आत्माका माक्षात्कार भी कर सकते है । यो कहिये कि उन्हीको पूर्ण ब्रह्मका ज्ञान या ब्रह्मका पूर्ण साक्षात्कार होता है । जिनने ऐसा कर लिया है उनकी बुद्धि चक्कर या भ्रममे-समोहमे-पड नहीं सकती। यहाँतक कि मरणकालकी अपार वेदनाके समय भी वह विचलित नहीं हो पाती। क्योकि वह जिधर ही जाती है अध्यात्मादिके रूपमे आत्मा ही यात्मा पाती है। यही है बहुत वडी विशेषता इस विवेचनकी। सक्षेपमे यही बाते कहते हुए दो श्लोकोमे अध्यायका उपसहार इस प्रकार करते है- जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये। ते ब्रह्म तद्विदु. कृत्स्नमध्यात्म कर्म चाखिलम् ॥२६॥ साधिभूताधिदेव मा साधियज्ञ च ये विदुः । प्रयाणकालेऽपि च मा ते विदुर्युक्त चेतसः ॥३०॥ (फलत.) जन्म और मरणमे छुटकारेके लिये जो मुझमे ही मन लगाके यत्न करते हैं वही उन पूर्ण ब्रह्मको. अध्यात्मको और समस्त कर्मोको जानने है। (इमी तरह) अधिभूत, अधिदैव एव अधियनके रूपमे भी जो मुभा परमात्माको साक्षात् अनुभव करते है, पूर्ण समाधिमे मन लगाने- वाले बढी लोग मन्णके नमय भी मुझ पन्मात्माका ही साक्षात्कार करते 2011 यहां जराने जन्म नमनना ही ठीक है। व्ही मरणकी साथिनी