पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६७४ गीता-हृदय बात दूसरे अध्यायमें कही जा चुकी है और "लभन्ते ब्रह्मनिर्वाण" (५।२५) तथा "सुखेन ब्रह्मसस्पर्श" (६।२८) में जो ब्रह्म या ब्रह्मानन्दकी प्राप्ति कही गई है, उसकी अपेक्षा यह कोई नई चीज ब्रह्म शब्दसे तो नहीं कही जा रही है, यह शका उसे हो सकती थी। क्योकि समाधिके द्वारा ब्रह्मज्ञान- की बात कहने के बाद यहां एकाएक यह कह देना कि पूर्ण या कृत्स्न ब्रह्मको ऐसे ही लोग जानते है, जरूर घपलेमे डालनेवाला प्रतीत होता है । यह कृत्स्न रूपसे जानने योग्य कोई और ही ब्रह्म है क्या, यह खयाल इसीलिये हो पाया। ब्रह्म है भी अनेक यह कह चुके है । इसलिये भी ऐसा खयाल अनुचित नही कहा जा सकता है। मरणकालके वारेमें भी शकाका होना जरूरी था। भला उस अपार वेदनाके समय किमीका चित्त एकदम एकाग्र कभी रह सकता है ? यह तो निराली बात होगी। जवतक वह मनुष्य दुनियासे न्यारा कोई अलौकिक पदार्थ न माना जाय तबतक यह नही हो सकता। ऐसा होना तो ठीक वैसा ही है जैसा लपटके बीचमे वर्फकी ठडकका अनुभव | इसीलिय खासतौरसे जोर देके पृछना पडा कि प्रयाणके समय कैसे यह बात होगी ? कैसे मन कावूमें रहेगा ? अधियज्ञ सम्बन्धी प्रश्नपर तो विशेष प्रकाश पहले ही डाला गया है कि इसका क्या प्राशय है। इन्ही सब वातोको मनमें रखके- अर्जुन उवाच किं तद्ब्रह्म किमध्यात्म कि कर्म पुरुषोत्तम । अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदेव किमुच्यते ॥१॥ अधियज्ञ. कय कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन । प्रयाणकाले च कय ज्ञेयोऽसि नियतात्मभि ॥२॥ अर्जुनने पूछा-हे पुरुषोत्तम, हे मधुसूदन, वह ब्रह्म क्या (चीज)