पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६६

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संन्यास और त्याग फल कभी नहीं मिलते।" यहाँ त्यागीके ही अनुसार सन्यासीका अर्थ भी त्यागी ही माना जाता है । यह बात बहुत साफ है । ठीक इसी तरह पाँचवे अध्यायके उक्त श्लोकमे भी पीछेके ब्रह्म शब्दका अर्थ पूर्व लिखे सन्यास शब्दके बलसे सन्यास ही होना क है। उपनिषदोमे भी "सन्यासो हि ब्रह्म" आदि प्रयोग मे ब्रह्मशब्द सन्यासके अर्थमे ही आया है और गीता तो उपनिषद् हई। जैसा कि अभी-अभी कहा है, गीताके १८वे अध्यायमे जो शका त्याग और सन्यासकी हकीकत या असलियतके बारेमे की गई है, उससे भी सन्यासकी कर्त्तव्यता सिद्ध हो जाती है। हम तो कही चुके है कि इन दोनो शब्दोके अर्थोंमे फर्क नही है। इसीलिये इस प्रश्नके बाद भी गीतामे ही दोनो एक ही अर्थमे बोले गये है। सवाल तो हकीकत या बारीकीके बारेमे ही है। इसीलिये प्रश्नवाले पहले श्लोकमे "तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्" लिखा है, जिसका अर्थ है कि "इन दोनों की हकीकत, असलियत या भीतरी बारीकियाँ जानना चाहता हूँ"। तत्त्व शब्द इसी मानोमे बोला ही जाता है। शब्दार्थको तत्त्व नही कहते । किन्तु जब कभी तत्त्व कहना होगा तो जिनके तत्त्वसे अभिप्राय होगा उन चीजोकी परिभाषा कर दी जायगी, उनका लक्षण कर दिया जायगा। यही बात हमेशा होती आती है। यहाँ भी आमतौर से दोनोका एक ही अर्थ समझा जानेके कारण ही अर्जुनको पूछना पडा कि आया दोनोकी परिभाषा एक ही है या जुदी-जुदी ? दोनोकी असलियत एक है या दो ? दोनोमे बारीकियाँ कुछ-कुछ है या नही ? इसी हिसावसे उसे उत्तर भी दिया गया है। उत्तरकी हालत यह है कि त्यागके बारेमे लोगोकी चार राये होनेके कारण और कृष्णका खुद अपना भी एक स्वतत्र विचार होनेके कारण पहले उसीकी हकीकत कहनी पडी है । हालाँकि प्रश्नमे पहले सन्यास ही