आठवाँ अध्याय ६७७ रूपमे परमात्मा मौजूद है, जिससे उसमे मन आसानीसे जोडा जा सकता है। जो लोग यह माननेको तैयार न हो उन्हे तो यह स्वीकार करना ही होगा कि आत्मज्ञानी मरनेके समय यज्ञचक्रको छोड देनेसे पापी और इन्द्रियो- का पोषक हो गया। इसीलिये उसका जीवन व्यर्थ गया, "अघायुरिन्द्रिया- रामो मोघ पार्थ स जीवति" (३।१६) । हमारा मतलब उन लोगोसे ही यहाँ है जिनके अत्मज्ञानका पूर्ण परिपाक मरणके पूर्व नही हो सका है, जिनमे मस्ती नहीं आई है। क्योकि वैसे मस्तोके लिये तो कोई कर्तव्य रही नही जाता है। यह भी बात है कि व्यष्टि और समष्टि या पिंड और ब्रह्माड दोनोमें ही हर चीजको देखते तथा मानते है । "द्वाविमौ पुरुषो” (१५।१६) के अनुसार पुरुष तो शरीरमे हई तथा अध्यात्म और अधिभूत भी। सिर्फ अधियज्ञका पता लगना बाकी है। और वही पूछा भी गया है । अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् । यः प्रयाति स मद्धावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥५॥ यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् । तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥६॥ हे कौन्तेय, अन्तकालमे----मरनेके समय-शरीर त्यागते हुए मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीरको छोडके जो प्रयाण करता है- मर जाता है-वह मेरा ही स्वरूप हो जाता है, इसमे सशय नहीं है। (क्योकि) शरीरान्तके समय जिसी-जिसी पदार्थको स्मरण करता हुआ शरीर छोडता है-कारण हमेशा उसी पदार्थकी भावना उसके भीतर रही है---उसी-उसीका रूप बन जाता है ।५।६। तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च । मपितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ॥७॥ इसलिये हर समय मुझीको लगातार याद करो और लडते भी रहो।
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