६७८ गीता-हृदय (इस तरह) मुझमें ही मन और बुद्धिको लिपटा देनेपर निस्सन्देह मुझको ही प्राप्त होगे ।७। इन तीन श्लोकोमें जो सिद्धान्त बताया गया है कि अन्त समयमें मन जिसमें जम जाता है, फलत जिसकी स्मृति प्रबल हो उठती है, मरनेके बाद आत्माको वैसा ही शरीर मिलता है, यह पुनर्जन्मका सिद्धान्त है । लेकिन यह बात योही अकस्मात् नही हो जाती। मरनेके समय कथा- वार्ता सुन-सुनाके ही जो लोग काम निकालना चाहते है वह भूलते है। इसीलिये तो गीताने "सदा तद्भावमावित" और "मयर्पितमनोबुद्धि" कह दिया है। जिस बातका निरन्तर अभ्यास किया है, जिसकी भावना प्रबल है, जिसमें मन और बुद्धि दोनो हीको लगा दिया है, या यो कहिये कि इन दोनोको जिसके हवाले कर दिया है, उसीकी प्रबल स्मृति अन्तकालमें होगी और मरनेपर वही पदार्थ, स्थान या शरीर प्राप्त होगा। आगेके (८,१३) श्लोकोमे भी यही बात विस्तारके साथ कही गई है। 'प्रयाणकाले प्रश्नका उत्तर भी इन्हीमें है। अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना। परम पुरुष दिव्य याति पार्थानुचिन्तयन् ॥८॥ हे पार्थ, (इसीलिये) अभ्यास रूपी उपायसे एकाग्र तथा अन्य किसी भी पदार्थमें जा नही सकनेवाले मनसे दिव्य परमपुरुष-पुरुषोत्तम परमात्मा का निरन्तर चिन्तन करता हुआ (मनुष्य) उसीको प्राप्त करता है ।। कवि पुराणमनुशासितारमणोरणीया समनुस्मरेद्यः । सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्ण तमसः परस्तात् ॥६॥ प्रयाणकाले मनसाञ्चलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव । भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥१०॥ जो (आदमी) प्रयाण-मरण-कालमें योगके वलसे भौगोके
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