६८० गीता-हृदय प्राणायाम प्रत्याहार ध्यान धारणा समाधयोऽप्टावगानि" (पात० २१२६) में स्पष्ट है। इसके बिना मरणकालमे यह बात अनभव है। दूसरी बात यह है कि १०वे श्लोकमे जो भौगोंके वीचम प्राणा टिकानेकी बात कही गई है वह आगे १२वें श्लोकमें लिखी धारणाकी पहनी मीढी है । योगियोने प्राणके टिकानेके कई अडे माने है जिनमे घूमता हमा वह अन्तमे मस्तक पहुँचके वही रुक जाता है । इस तरह समाधि पूर्ण हो जाती है । इन्ही अड्डोको वे लोग चक्र कहते है । नाभिसे ही प्राणको ऊपर ले चलते है । प्राणका सनातन अड्डा नाभिको ही मानते है । इगीन गे मलाधार चक्र भी कहते है। यहांसे यासिरी स्थान मस्तक या ब्रह्मरन्ध्रम पहुँचनेके पहले और भी चार स्थानोसे उसे गुजरना होता है। इन चाराम आखिरी स्थान भौगोके वीच है। अभ्यासकी पुष्टिके ही लिये यह एक तरहकी कमरत ही समझिये । यहीमे ब्रह्मरध्रमे जाके काम पूरा हाता है। यही कारण है कि भौगोकी बात कहके आगेकी बात कहनेमे पूर्व ११वे श्लोकमे सजग कर दिया है कि लो, उसे भी सुनाये देता है। अगनमें वह स्क्ष्म और कठिन वात है । इसीलिये मजग कर दिया है। यहां 'प्रवक्ष्ये'का भी वही अर्थ है जो सातवें अध्यायमें कहा है। यानी अभी कहे देता हूँ। न कि भविष्यकाल इसके मानी है । जो लोग दमवे श्लोककी बातमे वारहवेवालीको म्बनय मानते है वह दरअसल यह चीज जानते ही नहीं। ये दोनो ही एक दूसरेमे मिनी- जुली आगे-पीछेकी मीढियां है। इसीलिये ११वमें पदका अयं मार अक्षर या पद करना भी ठीक नहीं है । अक्षर ब्रह्म तो इम अध्यायये गुग्ने ही पाया है। आगे जो ॐकारके उच्चारणकी बात कही गई है उस लोगोको कुछ श्रम हो जाता है जरुर । मगर वहां भी मममनकी बात है। एक तो यही बात बुद्धिमं नहीं ममाती कि प्रयाणलानमें भार का जबानमे उच्चारण कंगे होगा। उस समय यह गणित रहती है।
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