पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६६३

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पाठवां अध्याय ६७६ मध्यमे प्राणको दृढतासे टिकाके भक्तियुक्त एकाग्र मनसे दूरदर्शी- सर्वज्ञ-- पुरातन, अनुशासन करनेवाले, परमाणुसे भी परमाणु- अत्यन्त सूक्ष्म-- सब पदार्थोंके आधार, अचिन्तनीय स्वरूपवाले, सूर्य सदृश प्रकाशमान और अज्ञानसे दूर रहनेवाले दिव्य परम पुरुषको निरन्तर याद करता है वह उसीको प्राप्त होता है ।।१०। यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः। यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्य चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥११॥ वेदोके ज्ञाता जिसे अक्षर-अविनाशी-कहते है, रागद्वेषादिसे रहित सन्यासी जिस रूपमे मिल जाते है (और) जिसकी (प्राप्तिकी) इच्छावाले (जन्म) ब्रह्मचर्यका पालन करते है उसी पद (की प्राप्ति कैसे होती है यह बात) तुम्हे सक्षेपमे अभी बताता हूँ ॥११॥ सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुद्ध्य च। मूाधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ॥१२॥ ॐ इत्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् । यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ॥१३॥ सभी (इन्द्रियोके) छिद्रोको रोकके, मनको हृदयमे ही अँटकाके और अपने प्राणोको मस्तकमे ले जाके योगकी धारणामे लगा हुआ जो (आदमी) प्रोकार रूपी एकाक्षर ब्रह्मका (मनसे ही) उच्चारण करता और मुझ परमात्माको ही निरन्तर याद करता हुआ शरीर छोडके प्रयाण करता है वही परमगति--मुक्ति प्राप्त करता है ।१२।१३। यहाँ इन चार श्लोकोके बारेमे कुछ बाते जानने योग्य है। पहली बात यह है कि यहाँ योगबलका अर्थ पातजल योग ही है, जिसमे प्रधानरूपसे प्राणायाम आ जाता है। इसीलिये योगधारणाका भी उल्लेख है। योगके आठ अग यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार ध्यान, धारणा, समाधिमें सातवाँ अग धारणा है, जैसा कि “यमनियमासन