पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६६८

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६८४ गीता-हृदय सहस्रयुगपर्यन्तमर्यद्ब्रह्मणो विदुः। रात्रि युगसहलान्ता तेऽहोरात्रविदो जनाः ॥१७॥ ब्रह्माकी दिनरात (का हिसाव) जाननेवाले जानते है कि (सत्य, वेता, द्वापर, कलि इन चार) युगोके हजार वार गुजरने पर ब्रह्माका एक दिन और उतने हीकी रात होती है ।१७। यहाँ “तेऽहोरात्रविद "में 'ते'का 'वे' अर्थ नहीं है। यह तो यो ही पा गया है। जब किसी खास व्यक्तिको न कहके अनिश्चित रूपसे कहते है तभी ऐसा बोलते है । अग्रेजीमे भी 'दे से' (they say) वोलते है "ऐसा कहते है" इसी अर्थमें। अव्यक्ताद्वयक्तयः सर्वा प्रभवन्त्यहरागमे । राज्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसजके ॥१८॥ भूतग्रामः स एवाय भूत्वा भूत्वा प्रलीयते । राच्यागमेऽवश पार्थ प्रभवत्यहरागमे ॥१॥ दिनके आते ही शुरू होते ही-अव्यक्त-ब्रह्माकी निद्रावस्था-से ही सारे व्यक्त पदार्थ पैदा होते है। रात आने पर फिर उसी अव्यक्त नामक दशामे विलीन हो जाते है । हे पार्थ, भौतिक पदार्थोका यह वही समूह वारवार पैदा होके रात आते ही मजवरन नष्ट हो जाता और दिन आते ही फिर बन जाता है ।१८।१६। पहले भी "अव्यक्तादीनि" (२१२८) में यही बात कही जा चुकी है। यहां भी वही आशय है। परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः । यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ॥२०॥ उस अव्यक्त या स्वापावस्थावाले ब्रह्मासे भी परे–बढकर-जो अव्यक्त है वही सभी पदार्थोके नष्ट होने पर भी नष्ट नही होता है ।२०।