प्राठवां अध्याय ६८५ अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम् । यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥२१॥ इसी (दूसरे) अव्यक्तको ही अक्षर या अविनाशी कहा गया है । वही परमगति (भी) है, जिसके प्राप्त हो जाने पर लौटना नही होता। वही मेरा परम धाम (भी) है ।२१। पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया । यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ॥२२॥ हे पार्थ, जिसके ही भीतर ये सभी पदार्थ मौजूद है और जो इन सबोमे व्याप्त है वह परम पुरुष केवल अनन्य भक्तिके द्वारा प्राप्त हो सकता है ।२२॥ यहाँ पर हम यदि गौरसे देखे तो पता चलेगा कि ब्रह्मलोकसे लौटनेकी जो बात चली थी उसीके प्रसगमे पुनरपि निर्वाणमुक्तिकी बात तीन (२०-२२) श्लोकोमे कह दी गई है। ताकि लोग दोनोका आमने-सामने मुकाबिला करके देखे कि कौनसी चीज अच्छी है-पाया ब्रह्मलोकका मार्ग पकडके वहाँ जाना और लम्बी प्रतीक्षाके बाद ब्रह्माके साथ मुक्त होना, जो वस्तुगत्या पुनर्जन्मके बाद मुक्त होनेके समान ही है, या आत्मसाक्षात्कारके द्वारा तत्काल मुक्त होना, जिसमे यह आनाजाना और लम्बी प्रतीक्षाकी गुजाइश नही है । इसलिये फिर उसी ब्रह्मलोकवाली बात पर ही आके उसके सम्बन्धकी शेष बाते आगेके श्लोकोमे बताते और अध्यायका उपसहार करते है। यहाँ पर अब तक जो कुछ गीताके श्लोकोमे कहा गया है उससे तो यही पता चलता है कि ब्रह्मलोकमे भी जाके लोग वापिस ही आते है, जन्म लेते है। मगर परम्परासे जो बात मानी जाती है उसके साथ इस कथनका कुछ विरोध हो जाता है। माना तो यही जाता है कि स्वर्गादि लोकोमें जाके वहाँसे वापिस आना और जन्म लेना पडता है। गीतामें भी "विद्या
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