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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६७७

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नवा अध्याय ६९३ श्रीभगवान कहने लगे-दोष दृष्टि तथा निन्दा बुद्धिसे रहित तुम्हे अत्यन्त गोपनीय ज्ञान-विज्ञान अभी और भी बताता हूँ। इसे जानके बुराईसे छुटकारा पा जाओगे ।। राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् । प्रत्यक्षावगम धर्म्य सुसुखं कर्तुमव्ययम् ॥२॥ अश्रद्दधाना. पुरुषा धर्मस्यास्य परतप । अप्राप्य मा निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्मनि ॥३॥ यह सभी विद्यानो एव गोपनीय वस्तुओका राजा है, पवित्र है, उत्तम है, प्रत्यक्ष अनुभव योग्य है, धर्मके अनुकूल है, अविनाशी है (और) आसानी- से ही इसे प्राप्त किया जा सकता है ।२। हे परतप, इस धर्मयुक्त बातमे श्रद्धा नही रखनेवाले मनुष्य मुझ तक पहुँच न सकनेके कारण जन्म-मरण रूपी ससारमे निरन्तर चक्कर काटते रहते है ।३। यहाँ 'प्रत्यक्षावगम' और 'कर्तुं सुसुख' विशेषण बडे कामके है। पहला विशेषण तो विज्ञानके अत्यन्त अनुकूल है। विज्ञानकी बाते जबतक प्रत्यक्ष न हो उनकी कोई कीमत होती ही नहीं और यह उसी प्रत्यक्षकी तैयारी ठहरी । इसी प्रकार 'कर्तुं सुसुख'के मानी हैं जो आसानीसे किया जा सके, समझा जा सके । उसमे दुविधेकी गुजाइश नही है । वह तो हीरेकी तरह चमकनेवाली प्रत्यक्ष चीज है। इसीलिये उसकी पहचान स्वर्गादि पदार्थोकी अपेक्षा कही आसान है । जबतक उसे जान पाते नही तभी तक दिक्कत है । जानते ही सारी परीशानी चली जाती है । तेज धारावाली नदीके पार दस साथी उतरे। फिर इस ख्यालसे कि कही तैरनेमे कोई बह तो नही गया, गिनती करने लगे। नतीजा यह हुआ कि पहली गिनतीमे एककी कमी प्रतीत हुई । घबराके दूसरे, तीसरे आदि सभीने गिना और सबोने नौ ही सख्या पाई । अब तो आफत थी। छाती पीटके लगे सभी रोने कि दसवाँ गायव है, अब क्या करें !