पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६७८

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६६४ गीता-हृदय सुनते ही कुछ लोग दौड आये और पूछा तो पता लगा कि इनका दसवाँ साथी ही बह गया। पूछनेवालोमे जब एकने गिना तो दसके दस ठहरे ! इसपर उनने उनमे एकसे कहा कि गिनो तो, कहाँ दसवाँ गायव है ? उसने एक एक करके नौको गिना और अपनेको न गिनके चट कहा कि देखिये न, नौ ही तो है ? इसपर पूछनेवालेने कहा कि तू अपनेको तो गिनता ही नही वस, सवोकी आँखे खुल गई । दसवाँ तो हरेक खुद था और इतना नजदीक था कि कुछ पूछिये मत । मगर दूरसे भी दूर हो गया था 1 किन्तु चतुर उपदेशकके बताते ही फिर ऐसा निकट, ऐसी पहुँचके भीतर हो गया कि वैसा कोई भी नही रहा । यही बात यहाँ भी है। भूला हुआ अर्जुन कृष्णके उपदेशसे आसानीसे अपने आपको समझेगा । स्वर्ग-नरकको क्या इतना जल्द देख सकते है ? क्या खेती या रोजगारमें भी इतनी शीघ्र सफलता हो सकती है ? जो लोग 'आचरण करनेमे सुखकारक' ऐसा अर्थ इस 'सुसुख कर्तुं 'का करते है वे या तो सस्कृत समझते ही नही, या नाहक खीचतान करते है । वैसे अर्थमे ऐसा प्रयोग सस्कृतके विद्वान कभी नहीं करते, उनसे मेरा यही नम्र निवेदन है। मया ततमिद सर्व जगदव्यक्तमूत्तिना। मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाह तेष्ववस्थित. ॥४॥ न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमेश्वरम् । भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावन ॥५॥ यथाकाशस्थितो नित्य वायुः सर्वत्रगो महान् । तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ॥६॥ मुझ अव्यक्त-अदृश्य-मूर्त्तिने ही इस समूचे जगत्को व्याप्त कर रखा है । सभी पदार्थ मुझीमे है, मैं उनमे (हर्गिज) नही हूँ। (लेकिन) मेरा ईश्वरी करिश्मा तो देखो कि ये पदार्थ मुझमे (वस्तुत ) है भी नहीं 1 1