नवा अध्याय ६६६ ? रचनाकी बात कही है, तब-तब यही बात ज्योकी त्यो आती गई है । आठवे अध्यायमे तो ब्रह्माके द्वारा सृष्टिरचना और उसके मिटाने या प्रलयकी बात प्रसगवश आई है। वह साक्षात् भगवानके द्वारा रचनाका प्रसग तो है नहीं। फिर उसे यहाँ दुहरानेका क्या सवाल सबसे बड़ी बात यह है कि यहाँ सृष्टि-रचनाके सिद्धान्तका दार्शनिक विश्लेषण एव विवेचन तथा निरीश्वर सृष्टिवादका खडन है, जैसा कि "मयाध्यक्षेण" और "हेतुनानेन" (६।१०) से स्पष्ट प्रतीत होता है । प्रकृतिका सहारा लेके किस प्रकार क्यो यह विश्वका सारा पसारा किया जाता है, इस मामलेमे सृष्टिके समस्त पदार्थोंकी क्या मजबूरी है, वह प्रकृतिके वशमे किस प्रकार है, ईश्वरकी क्यो क्या जरूरत इसमे पडी, आदि सारी बातोपर पूरा प्रकाश कर्मवादके प्रकरणमे डाला जा चुका है । अन्ततोगत्वा सबोके कामोको मिलाने और सभीका लेखा-जोखा ठीक रखने (for coordination and super regulation) के लिये ही ईश्वरका मानना जरूरी हो जाता है, यह बात वही हमने लिखी है। इतनेपर भी किस प्रकार इन सारे कामोमे वह नही फँसता और निर्लेप रहता है यह भी वही तथा दूसरे स्थानोमे कही चुके है । यदि इनमेसे ईश्वर ही हटा दिया जाय या प्रकृतिको ही हटा दे तो यह जो बाकायदा ससारका चक्र चल रहा है, खत्म हो जायगा। कमसे कम अनियमित तो होई जायगा । प्रकृति और उसके गुण तो बहुत बडे नियामक (regulator) है । इन्हीसे प्राणियोके स्वभाव बनते है, जिनके अनुसार कर्म-काम-किये जाते है और वही काम ईश्वरके व्यापक नियमन (Super 1egulation) मे उसके सहायक बनते है। अनादि कालसे यह चक्र चालू है। इसीलिये किसीके ऊपर इसके शुरू करनेकी जवाब- देही हई नहीं। ऐसा क्यो हुआ यह प्रश्न भी उठता ही नही । यहाँ पुन एक प्रश्न वैसा ही उठता है जैसा चौथे अध्यायके शुरूमे
पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६८३
दिखावट