६६८ गीता-हदय को बनाता रहता हूँ जो प्रकृतिके कब्जेमे आनेके कारण मजबूर है (कि पैदा हो और नष्ट हो) ७८ नमा तानि कर्माणि निवघ्नन्ति धनजय । उदासीनवदासीनमसक्त तेषु कर्मसु ॥६॥ मयाऽध्यक्षेण प्रकृति सूयते सचराचरम् । हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥१०॥ हे धनजय, सृष्टि-प्रलयके उन कामोम प्रामक्ति-शून्य और तटस्थकी तरह रहनेवाले मुझको वे कर्म बन्धनमे नही डालते है । मेरे अध्यक्ष होने (मात्र)मे ही प्रकृति स्थावर-जगम जगत्की रचना कर डालती है । इस जगत्का (इस तरह) बार-बार वनना-विगडना-सृष्टि-प्रलयका यह चक्र-(भी) इसीलिये चालू रहता है ।६।१०। यहाँ कल्प शब्द देखकर कुछ लोगोको भ्रम हो गया है कि आठवें अध्यायके "अव्यक्ताद्वयक्तय" (८।१८)मे जो सृष्टि एव प्रलयकी बात आई है उमीसे यहाँ भी मतलब है, क्योकि पौराणिक भाषामें ब्रह्माके दिनको ही कल्प कहते है। मगर वात दरअसल यह नहीं है । क्लुप धातुसे यह कल्प शब्द बनता है। उसका अर्थ है जो वस्तु पहलेसे न हो उसे तैयार करना या वनाना। यह दूसरी बात है कि यह बनाना केवल दिमागी हो, या ठोस हो या दोनो ही तरहका । इस तरह इसका वही अर्थ हो जाता है जो सृष्टि, विसृष्टि आदि शब्दोका है। यह शब्द पौराणिक अर्थमें आया है इसमे कोई प्रेमाण नहीं है। कल्पादिका अर्थ है सृष्टिको आदि या प्रारम्भ । कल्पक्षयका अर्थ है उसीका प्रलय या सहार। हमने तो अभी-अभी कहा है कि सातवे अध्यायके इसी प्रसगमें जो सृष्टिकी रचना आदि कही गई है और प्रकृतिका भी उल्लेख है वही वात यहाँ भी है । यही बात तेरहवे अध्यायके क्षेत्रनिरूपणके अवसरपर "महाभूतान्यहकार (१३१५)मे भी कही गई है। गीतामें जब-जब भगवानने स्वय सृष्टि 1
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