पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६८५

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७०२ गीता-हृदय यह करते है। (यह ज्ञानयज्ञवाली उपासना तीन प्रकारकी होती है-) एक ही परमात्माके रूपमे, भिन्न-भिन्न पदार्थोके रुपमे अनेक तरहकी और विराटके रूपमे ।१५ ज्ञानयज्ञ तो बहुत ही व्यापक है । उसके भीतर सद्ग्रथोका पाठ भी आ जाता है, जैसा कि पहले कह चुके है। मगर यहाँ ज्ञानरूपी यज्ञसे ही अभिप्राय है । वह तीन तरहका है। एक तो यही है कि समस्त जगत् अद्वितीय ब्रह्मसे जुदा नही है और वह ब्रह्म मै ही हूँ। इस प्रकार अपनी आत्मा ही सर्वत्र नजर आती है। दूसरी कोई भी चीज नही । दूसरा कि जब पृथ्वी, जल, सूर्य, चन्द्र आदि पदार्थोको देखते है, तो ये पदार्थ नजर तो पाते हैं। मगर इन सबोमे भगवानकी और आत्माकी ही भावना की जाती है। इस प्रकार बहुत रूपमे भगवानका अलग-अलग खयाल करके अभ्यास किया जाता है। या यो कहिये कि इनके रूपमें ही अनेक देवताओकी ही पूजा की जाती है। तीसरा यह कि समस्त जगत् भगवान ही है। इसमे जगत्को देखते है जरूर । मगर अलग-अलग चन्द्र, सूर्यादिके रूपमे नही । किन्तु भगवानके रूपमें ही। हरा चश्मा लगानेपर पदार्थ नजर तो आते है। मगर सबका रग एक ही हरा दीखता है। इसमें और विराट दर्शनमे केवल इतना ही अन्तर है कि जहाँ चश्मेवालेको पृथक्- पृथक् पदार्थ नजर आते है तहाँ विराट्दर्शी सभी पदार्थोंको एक ही विस्तृत वस्तुके रूपमे देखके उनमे भगवानकी ही सूरत देखता है । वे उसके इस काममे पाईनेका काम करते है। सब मिलके एक आईना है जिनमें वह आत्मा-परमात्माको देखता है। साथ ही, आईनेको भी देखता है । पहले प्रकारके ज्ञान-यज्ञवालोकी नजरमे आईना-वाईना कुछ नही है, । केवल आत्मा ही आत्मा है। यही दोनोमे फर्क है। अब इसी विश्वदर्शन, ज्ञानयज्ञ या विराट्दृष्टिके प्रसगसे यह कहनेका मौका आ गया कि कौन-कौनसे मुख्य-मुख्य पदार्थ भगवानके रूप है ।