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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६८६

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नवा अध्याय ७०३ सत- वेशक, यहाँ भी अधिक पदार्थों को नही गिनाया है। फिर भी पहले--सातवे अध्याय -की अपेक्षा ज्यादा जरूर है। किन्तु सातवेंसे यहाँ जो सबसे बंडी विशेषता है वह यही है कि जब कि वहाँ पदार्थोके रस आदिको ही सार-के रूपमे खीचके भगवानका रूप बताया है, तब यहाँ वैसा न करके समूचे पदार्थोंको ही उसका रूप कह दिया है । इस प्रकार सातवेकी अपेक्षा एक कदम आगे बढे है । एकाएक ऐसी भावना कठिन थी, असभव थी। इसलिये पहले पदार्थोके निचोडसे ही शुरू करके यहाँ ठेठ पदार्थोतक पहुँच गये। यह ठीक है कि यहाँ भी गिने-चुने पदार्थ ही है । फलत. कमी रह जाती है जो आगे पूरी होगी। यहाँ पदार्थोको चुननेमे यह बुद्धि- मत्ता की गई है कि मामूली पदार्थ न लेके यज्ञ, भत्र, वेद, ॐकार आदि ऐसे ही विलक्षण पदार्थोंको लिया है जिनके बारेमे ईश्वर-बुद्धि होनेमे कोई आनाकानी आमतौरसे हो न सके। यदि प्रतिदिनके प्रयोगके मामूली पदार्थ लिये जाते तो खामखा अर्जुनको और दूसरोको भी आश्चर्य होता कि ऐ, यह क्या कह रहे है । अहं ऋतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम् । मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् ॥१६॥ मै ही ऋतु हूँ, मै ही यज्ञ हूँ, मै ही स्वधा हूँ, औपधियाँ (यज्ञीय अन्नादि) मैं ही हूँ, मत्र मै ही हूँ, घी मै ही हूँ, अग्नि मै ही हूँ (और) आहुति (भी) मै ही हूँ।१६। क्रतु कहते है वैदिक या श्रौत यज्ञयागोको । यज्ञ नाम है स्मात यज्ञो या कर्मोका । श्राद्धादि पितृकर्मोको स्वधा कहते है। पितरोके कर्मोका भेद न करके देवताओके कर्मोके ही दो भेद किये है-श्रौत और स्मार्त्त । श्रुतियो या वेदोमे लिखे कर्म श्रौत कहे गये । पीछे जब स्मृतियाँ और सूत्र-ग्रथ वने तो उनने जिन नये कर्मोंका प्रचार किया वही स्मात कहलाये । यही मोटी पहचान दोनोकी है। असलमे यज्ञयागादि करने-