पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६८८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

नवा अध्याय ७०५ तरहसे वेदोका परिशिष्ट है। त्रयी या तीन ही वेद कहनेका भी यही आशय है। आखिर मत्र भी तो तीन ही है। इन तीनोके अलावे तो मत्र होते ही नही। मत्र शब्द उन्हीका वाचक जो है । वेद्य, पवित्र और ॐकार ये तीन पदार्थ जुदे-जुदे है, न कि ॐकारके ही शेष दोनो विशेषण है। यद्यपि ॐकारका उल्लेख सातवे अध्यायमे ही हो चुका है, तथापि वहाँ उसका स्वतत्र रूप न होके वेदोका निचोड ही उसे माना है। विपरीत उसके यहाँ स्वतत्र रूपमे ही वह आया है और है यहाँ वह ब्रह्मका प्रतीक । गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् । प्रभवः प्रलयः स्थान निधानं बीजमव्ययम् ॥१८॥ जहाँ पहुँचा जाय वह, पोषक, स्वामी, साक्षी, सबका आधार, शरण, सुहृद, जिससे उत्पत्ति हो, जिसमे पदार्थ लीन हो या जा मिलें, जिसमे कायम रहे, सभी चीजो या कर्मोका कोष और पदार्थोका निरन्तर कायम रहनेवाला बीज (भी मैं ही हूँ)।१८। सातवे अध्यायका बीज मूल कारणके भानीमे आया है। मगर यह बीज साधारण बीजके ही अर्थमें है । बीज तो बराबर कायम रहता ही है। यदि वह न रहे तो कोई पदार्थ पैदा कैसे हो ? इसीलिये उसे अव्यय या निरन्तर कायम रहनेवाला कह दिया है । गतिका अर्थ है जहाँ- तक जाया जाय या गन्तव्य स्थान और लक्ष्य । तपाम्यहमहं वर्ष निगृह्मास्युत्सृजामि च । अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन ॥१९॥ हे अर्जुन, मै ही (सूर्यको किरणके रूपमे) तपता हूँ, वृष्टि या जलको रोक रखता और जमा करता हूँ और वर्षता भी हूँ। अमृत, मृत्यु, सत् और असत् भी मै ही हूँ।१६। यहाँ पूर्वार्द्धमे सूर्यका ही तीन रूपोमे वर्णन है । सूर्यकी किरणे ४५