पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६८७

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७०४ गीता-हृदय वाले लोग पहले अग्निको निरन्तर जलाये रखते थे। वैदिक मत्रोंसे ही शुरूमे उसकी स्थापना की जाती थी जिसे प्राधान कहते थे। यही अग्नियां दो प्रकारकी होती थी-श्रौत और स्मार्त । इन्हीमें या इन्हीसे किये जानेवाले कर्म क्रमश श्रौत और स्मार्त कहे गये । यही निचोड है। यह जरूरी नहीं है कि श्रुतियोमे कहे गये कर्म श्रौत अग्निमें ही हो, न कि स्मार्त्तमे । सूत्रग्रथ भी दो प्रकार के है-श्रौतसूत्र और स्मात्तंसूत्र । दर्शपूर्ण मासादि वैदिक यज्ञयाग श्रौतसूत्रोमे और विवाह, श्राद्धादि घर- गिरस्तीके कर्म स्मार्त्तसूत्रोमे पाये जाते है। घर-गिरस्तीके सर्वसाधारण कर्म ही आमतौरसे स्मार्त कहे जाते है। औषध या औषधिका अर्थ दवा नही है । "औषध्य फलपाकान्ता कोषके अनुसार जिनके फल पकनेपर वह खुद भी पक और सूख जायें वही गेहूँ, जौ आदिके पौदे औषधि कहे जाते है। यहाँ औषधिका अर्थ है देवतागो तथा पितरोके कर्मोंमें प्रयुक्त होनेवाले अन्नादि । पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामह । वेध पवित्रमोकार ऋक् साम यजुरेव च ॥१७॥ मै ही इस जगतके लिये पिता, माता, धाय (पिलाने-खिलानेवाली, जिसे धाई भी कहते है) तथा पितामह-दादा-हूँ। जानने योग्य, पवित्र या शोधक पदार्थ, ॐकार, ऋक्, साम, एव यजु भी मै ही हूँ ।१७। यहाँ ऋक् आदि तीनो शब्द उन नामोवाले वैदिक मत्रोंके ही है। जिन मत्रोको गाते है उन्हें साम कहते है। जिनके बारेमें पिंगल और छन्दोके नियम लागू है उन्हे ऋक् और जो इन दोनोंके अलावे खिचडी जैसे है उन्हीको यजु कहते है। साममत्र जिस मत्रसग्रहमे ज्यादा या सभी थे उसीको सामवेद, ऋक्मत्र जहाँ अधिकाश थे उसे ऋग्वेद और यजुर्मत्र जिसमे ज्यादातर थे उसे यजुर्वेद कहा गया । अथर्ववेदका सग्रह सबसे पीछे हुआ। इसमें सभी तरहके छूटे-छुटाये मत्र सगृहीत हुए। यह एक