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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६९५

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७१२ गीता-हृदय कोई शत्रु है न मित्र, (तथापि) जो भक्तिपूर्वक मेरा भजन करते है वे मुझमे और मै उनमे हूँ।२६। यहाँ २८वे श्लोकमे “कर्मबन्धन " पदके दो अर्थ है और दोनोका परस्पर सम्बन्ध है। कर्मोंसे फलोका बन्धन है, ताल्लुक है। अर्थात् कर्मोसे फल पैदा होते है। इसीके साथ फलोसे भी कर्मोका बन्धन या ताल्लुक है । क्योकि फलोके भोगने पर कर्मोमे चस्का पैदा हो जाता है और जी चाहता है कि ऐसे ही कर्म और भी करें। मगर भगवानके अर्पण करने पर तो यह कोई भी बात नहीं होती। फलत मनकी शुद्धि हो जानेसे कर्मोका स्वरूपत सन्यास होता है। अनतर समाविमे लग जाने पर आत्म-दर्शन होके मुक्ति मिल जाती है। इसपर यह खयाल हो सकता है कि जब भगवान सर्वत्र एकरस है और उसके लिये न तो कोई अपना है, न पराया, तो फिर यह क्या कि ज्ञानीजन उसे प्राप्त कर लेते है और दूसरे नही ? उसके सम्बन्धमे यह क्या वखेडा है ? वह तो सभीको प्राप्त ही है। क्योकि सभी जगह मौजूद है। इसीलिये प्राप्त करने या पहुंचनेकी भी कोई बात नही हो सकती है। ऐसी दशामे भक्तजनोका उसतक पहुँचना भी कुछ उलटी-सी वात लगती है। इसका सीधा और स्पप्ट उत्तर २६वा श्लोक देता है। कोई वढ दिनभर बीसियो गृहस्थोके घर जा-जाके उनका काम करता रहा। फिर कुछ दिन रहते ही फुर्मत पाके घर चला। जाडेके दिन थे। इसलिये कन्धे पर अपना वसूला रखके ऊपरमे उसने दोहर डाल ली थी। घरके नजदीक पहुंची रहा था कि एकाएक खयाल आया कि ऐ, बम्ला क्या हो गया ? मैं उसे कहाँ छोड आया ? बस, उल्टे पाँव लौट पडा, सभी जगह दौडता फिरा और पूछ-ताछ करके हार गया । पर वसूला न सका । लाचार मनहूस मनसे घर वापिस चला। पहुँचते ही दरवार्ड मित