पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६९६

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नवाँ अध्याय ७१३ तो पास पर जलती धुनीके पास गया। जाडेकी शाम तो थी ही । इसीसे आगकी जरूरत भी थी। आगके पास उदास बैठा ही कि बच्चेने पूछा कि पिताजी, आज उदास क्यो है ? उत्तर मिला कि क्या कहे ? जाने कहाँ बसूला ही खो गया और कमानेका आधार वही एक था । बच्चा इसपर कहता ही क्या ? थोडी देर वाद आगकी गर्मीसे देहमे गर्मी आने पर जो उसने दोहर उतारके रखनी चाही तो वसूला हाथ लग गया । अब तो उसकी खुशीका ठिकाना न था । उसने कहा, धत्तेरे की । बसूला ही था और मै दौडता फिरा । बस, यही बात परमात्मा और आत्माके मिलने-न मिलनेकी भी समझिये । नवे अध्यायमे जो कुछ कहना था, यही पूरा हो गया। फिर भी अभी पाँच श्लोक रह जाते है। उनमें कोई नई बात नही कही गई है। किन्तु जो लोग किसी भी हालतमे इस तरफ कदम बढाते है उन्हीके लिये प्रोत्साहन उन श्लोकोका विषय है। अभी-अभी २७वे श्लोकमे जो यह कहा गया है कि खाने-पीने, भोगराग या दूसरे भी कामोको भगवानको ही अर्पण कर दो, वह तो बहुत व्यापक चीज है । ऐसा होने पर तो बुरेसे भी बुरे कर्म इसी श्रेणीमे चले आ सकते है । तो क्या यह ठीक और मुनासिब होगा कि ऐसे कर्मोको भी भगवानको अर्पण किया जाय ? यदि हाँ, तो फल क्या होगा? यही न, कि ऐसे दुष्कर्मी लोग भगवानकी अन्य प्रकारकी पूजाका नाम न लेगे--उसीका जिसे लोग सचमुच पूंजा मानते है फलत यह तमाशा, नाटक और प्रवचनाके अलावे दूसरा कुछ न माना जाना चाहिये। यह बहुत मोटी बात है और आमतौरसे सभी लोग इसे बखूबी समझते है। फिर भी आश्चर्य है कि ऐसी वात न सिर्फ कही गई है, बल्कि उसका ऊँचेसे भी ऊँचा फल बताया गया है। इसीका उत्तर आगेके चार श्लोक इस तरह ? देते है-