७१४ गीता-हृदय अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् । साधुरेव स मन्तव्य. सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥३०॥ क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्ति निगच्छति । कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥३१॥ मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः । स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥३२॥ किं पुनर्बाह्मणा. पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा। अनित्यमसुख लोकमिम प्राप्य भजस्व माम् ॥३३॥ अगर पक्का दुराचारी भी हो, फिर भी मुझ परमात्माको अनन्य भावसे भजे, तो उसे साधु ही मानना होगा। क्योकि (अब तो) उसका व्यवसाय उचित ही है। (इसलिये) शीघ्र ही वह धर्मात्मा हो जाता है (और धीरे-धीरे उक्त रीतिसे) अखड शाति-मुक्ति-बखूबी प्राप्त कर लेता है । हे कौन्तेय, मनमे बिठा लो कि मेरे भक्तकी दुर्गति कभी होती ही नही। हे पार्थ, (यहाँ तक कि) जो नीच एव दूषित योनिवाले स्त्री, वैश्य और शूद्र भी है वे भी मेरा आश्रय लेके (क्रमश ) परम गति हासिल कर लेते है। तो फिर पुण्यजन्मा ब्राह्मणो तथा क्षत्रिय भक्तोका क्या कहना ? (इसलिये) इस सुखसे रहित और चन्दरोजा शरीरको पाके मुझीको भजो ।३०।३१॥३२॥३३॥ इन चार श्लोकोमें पहलेमें जो अनन्य भावसे भजनेकी बात कही गई है वह ठीक वही है जो “यत्करोषि"मे कही गई है। ३२वेंके “मा व्यपाश्रित्य"का भी कम-बेश वही आशय है। यह ठीक है कि ऐसे लोग एकाएक वैसा कर नही सकते । इसीलिये 'भजते'का अर्थ है भजनका यत्न करता है -उस ओर धीरे-धीरे कदम बढाता है। श्रद्धासे उस ओर बढनेसे ही रास्ता साफ होने लगता है। क्योकि यदि पूरा बढ जाय तो अत्यन्त दुराचारी-सुदुराचार ----कहनेके कुछ मानी नही रह जाते ।
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