संन्यास और त्याग ५५ डॅट रहना लाती है। इसलिये जरूरी हो गया है कि इन दोनोका भी विश्लेषण किया जाय । क्योकि शायद इनमे किसीमे कही आत्मा आ जाय । मगर २६से ३५ तकके श्लोकोमे इन दोनोको त्रिगुणात्मक बताके आत्माको अलग ही मान लिया है । जिस आराम और सुखके लिये कर्म करते है उसका निरूपण ३६-३६ श्लोकोमे करके उनमे सात्त्विक सुख को आत्मानन्द माना है सही; मगर वह कर्मजन्य हई नही। उसके लिये केवल अपनी बुद्धिकी निर्मलता अपेक्षित है-"आत्म-बुद्धिप्रसादजम् ।" वह भले ही कर्मजन्य हो सकती है । शेष दो सुख तो आत्मासे लाख कोस दूर है। इसके उपरान्त आमतौरसे ४०वेमे कह दिया है कि कर्म तो सासारिक चीजोकी सिद्धिके ही लिये किया जाता है और वह चीजे तो सभी को सभो त्रिगुणात्मक होनेके कारण आत्मासे अलग है। प्रसगवश चारो वर्णों के स्वाभाविक गुणोका ४१-४४ श्लोकोमे दिग्दर्शन कराके दिखा दिया है कि आत्मासे इनका क्या ताल्लुक इस प्रकार जब कर्मोसे ही भय करनेकी कोई वजह न होनेके कारण बन्धनके डरसे उन्हे स्वरूपत त्याग करनेका सवाल आता ही नही, तो यज्ञ, दान, तपके स्वरूपत त्यागकी बात कहाँ और क्यो आयेगी ? इस तरह त्यागका सविस्तर निरूपण पूरा हो जाता है। चारो वर्षों के कर्म जब स्वाभाविक (स्वभावज) ही है तो फिर उनके बुरे-भले या छोटे-बडे होनेका प्रश्न भी कहाँ आता है ? जैसाकि आगका स्वाभाविक काम जलाना और पानीका भिगोना होनेके कारण उनमे भले-बुरे या नीच-ऊँचका सवाल नही उठता, ठीक यही बात यहाँ भी है। इस तरह वर्ण-धर्मों और कर्मोकी समान- रूपता भी प्रसगतः सिद्ध हो जाती है। विपरीत इसके ४५-४८ श्लोकोमे स्पष्ट कह दिया है कि स्वकर्म यदि ऊपरसे बुरा भी प्रतीत हो तो भी उसे हगिज नहीं छोडना चाहिये। वह सहज (स्वाभाविक) जो ठहरा। उसीके द्वारा भगवानकी पूजा ?
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