पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७१

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गीता-हदय भी तो होती है। कर्म ही तो भगवत्पूजा है। यदि भगवानको मतुष्ट करना या उसे जानना चाहते हो तो स्वकीय कोकोही ठीक-ठीक करना चाहिये । इस तरह तो त्यागकी जगह काँका करना ती जरी हो जाता है। क्योकि भगवत्पूजा तो श्रागिर करनी ही न इसके बाद ४९-५५ तक मन्यासकी उपयोगिता पौन उगाही दगाको वताके ५६-६५ तक उसके लिये री कर्माती उपयोगिता बताई गई। अब रह गई मन्यागकी बात । गोनी ४६ने ही शुनहानी पोर ध्वमे उसका स्पष्ट रूप दिपाया गया है । ४६वां रनोर यो, "अनपतवद्धि सर्वत्र जितात्मा विगतम्पृह । नेफम्र्य सिद्धि पगमा गन्यागेनाधिगच्छति"। इतका मीचा अर्थ यही है कि "जिमको वद्धि नहीं लिपटी न हो, जिनका मन अपने वगर्म हो और जिसे कोई भी लोभ-लालन मन गया हो यही सन्यासके द्वारा कर्मोके त्यागको यन्तिम गाको प्राप्त हो गया है।" मन बुद्धि प्रादिपर अपना अधिकार मनसे कमकि त्यागका रास्ता साफ हो जाता है और बहुतेरे काम छूट भी जाते हैं। फिर भी नियत वा स्वा- भाविक फर्म तो होते ही रहते है । फलत जबतक उनका भी त्याग न हो जाय पूरो निष्कर्मता या कर्मोके त्यागको प्रागिरी और पूर्ण हालतपर पहुंच नहीं सकते। इसीलिये मन्याग या कोका म्पर पत त्याग तब जरूरी हो जाता है। कर्मत्यागको पूर्णताकी जर रत क्या है, यह सवाल हो सकता है । मगर इसका उत्तर तो "प्रारुरुक्षोर्मुनेर्यो "की व्यारयाके समय दिया जा चुका है। वहीं वात यहां भी ५०से लेकर ५५ तकके लोगोमें कही गई है। ये श्लोक समाधिका ही व्योरेवार निम्पण करते है और कहते है कि अगर कुछ भी कर्मोका झमेला रहा तो समाधि हयाम ही मिल जायगी। फिर तो योगारूढ या आत्मदर्शी होना अराभव हो जायगा । ममाधिके लिये प्राय बहुत ज्यादा समय लगता है दीर्घकालकी अपेक्षा है। सो