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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७०७

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७२६ गीता-हृदय है । क्योकि जोई सुने वही समझदार पूछ सकता है कि अकेले भगवानने भला यह सब कुछ कैसे बना डाला ? इसलिये बनी-बनाई सभी चीजो और सभी पदार्थोके वर्णनके पहले ही कृष्णने ऐसा कह दिया जिससे किसीको शकाके लिये जगह रही नही जाती। ऐसी दशामें पीछे बने मनुनो या ऋषयोसे गीताको प्रयोजन ही क्या ? उनने सृष्टिके प्रारम्भिक विस्तारमें मदद तो दी न थी। अब प्रश्न होता है कि ये कौनसे चार मनु और सात महर्षि थे? क्योकि गीतामे तो उनका नाम है नही । इसलिये खामखा जिज्ञासा होती ही है। खासकर चौदह मनुओ और ६८ महर्षियोकी बात इधर चालू हो जानेके कारण यह उत्कठा और भी वढ जाती है कि आखिर ये सात ही ऋषि और चार ही मनु कौनसे है। इसके उत्तरमे हमे गीताकालीन या उससे पूर्व प्रचलित साहित्यसे ही सहायता मिल सकती है और वह साहित्य है ऋग्वेद आदि वैदिक ग्रथो, निरुक्त और वृहदारण्यक आदि उपनिषदोका ही। शेष साहित्य तो पीछे- का ही माना जाता है । अब यदि देखे तो वृहदारण्यकमे गोतम या गौतम, भरद्वाज, विश्वामित्र, जमदग्नि, वसिष्ठ, कश्यप और अत्रि इन सातका उल्लेख यो मिलता है "इमावेव गोतमभरद्वाजावयमेव गोतमोऽय भरद्वाज इमावेव विश्वामित्र जमदग्नी अयमेव विश्वामित्रोऽय जमदग्निरिमावेव वसिष्ठकश्यपावयमेव वसिष्ठोऽय कश्यपो वागेवात्रि" (२।२।४) । इसीके पहले "तस्यासत ऋषय सप्ततीरे" यह मत्रका प्रतीक लिखके उसीका व्याख्यान इस ब्राह्मणमें किया गया है। क्योकि उपनिषद तो ब्राह्मण-ग्रथका ही एक भाग है। इससे स्पष्ट है कि उस मत्रमे भी इन्ही सात महर्षियोका उल्लेख है। इसी प्रकार यदि वेदोंके सूक्तो या उन मत्र-समूहोको, जिनमे एक-एक विषयका प्रतिपादन है, देखे तो पता चलता है कि उनके कर्ता या ऋषि प्राय यही सात महर्षि