पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दसवाँ अध्याय ७२७ पाये जाते है। दयोकि हरेक मत्रके ऋषियोको पहलेसे ही लोगोने लिख रखा है। इसी तरह जब मनुअोके सम्बन्धमे जाँच-पडताल करते है तो पता चलता है कि ऋग्वेदके आठवे मडलके,५१, ५२ तथा दसवेके ६२ सूक्तोमे कई बार वैवस्वत, सावणि एव सावर्ण्य नामक तीन मनुअोका उल्लेख पाया जाता है । दृष्टान्तके लिये ५१, ५२ सूक्तोके पहले मत्रोको देखें । वे यो है “यथा मनौ सावरणी सोममिन्द्रापिब सुतम् । नीपातिथौ मघवन्मे- धातिथी पुष्टिगो श्रुप्टिगौ तथा”, “यथा मनौ विवस्वति सोम शक्रापिबः सुतम् । यथात्रितेच्छन् इन्द्र जुजोष स्यायौ मादयसे स च" । इसी तरह दसवे मडलके ६२वे सूक्तमे सावर्णि तथा सावर्ण्यका उल्लेख है । इसका सावरणि और उसका सावणि ये दोनो एक ही है। इसी तरह निरुक्तके 'मनु स्वायम्भुवोऽब्रवीत्" (३।१।५)मे स्वायम्भुव मनुका उल्लेख मिलता है। इस प्रकार वैवस्वत, सावणि, सावर्ण्य और स्वायम्भुव यही चार मनु गीतामे माने गये है। हमारे जानते यही प्रामाणिक और उचित बात भी है और गीताके इस श्लोकका यही अर्थ मुनासिब भी है। मगर कुछ लोगोने, जो इस बातका बहुत बडा दावा करते है कि उनके अर्थमे खीचातानी नही है, इस श्लोकका निराला ही अर्थ किया है। उनके दिमागमे यह बात बैठ चुकी थी कि गीतामे भागवत या नारायणीय धर्मका ही प्रतिपादन है और वह भी ऐसा ही जैसा उसे वह समझते है । वह कहते है कि वह भागवतधर्म है तत्त्वज्ञानमूलक भक्ति प्रधान कर्मयोग । कर्मयोगका भी अर्थ वह यही करते है कि कर्मोका स्वरूपत त्याग कभी नही करके उन्हें करते-करते ही मर जाना। वह केवल फलासक्तिका त्याग ही मानते है । वह इस श्लोकके पूर्वार्द्धको तीन टुकडोमे बाँटते । वे है महर्षय सप्त, पूर्वे चत्वार , तथा मनव । फिर इनके अर्थ