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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७०९

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७२८ गीता-हृदय यो करते है कि सात महर्षि, उनके पहलेके चार और मनु । उनके कथनसे मरीचि, अत्रि, अगिरस्, पुलस्त्य, पुलह और ऋतु यही सात ऋपि है। इनका वर्णन महाभारतके शान्तिपर्वके ३३५ और ३४० अध्यायोमें आया है। अब रहे इन महर्षियोसे भी पहलेके चार। उन्हे भागवतधर्ममें चतुर्दूहके नामसे पुकारते है और वे है वासुदेव, सकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध । इनकी उत्पत्तिका क्रम इन सप्तर्षियोंसे भी पहले माना गया है। इनका उल्लेख भी उसी प्रसगमें ही महाभारतमें आया है। मनु शब्दसे भी उनने सात मनु लिये है, जिनमे छे तो गीतासे पहले गुजर चुके थे और सातवाँ उसी समय गुजर रहा था। उनके नाम क्रमश ये है- स्वायम्भुव, स्वारोचिष, औत्तम या अौत्तमी, तामस, रैवत, चाक्षुष और वैवस्वत । उस समय वैवस्वत ही गुजर रहा था। बाकी मनु तो गुजरे न थे और न वर्तमान ही थे, फिर उनका उल्लेख गीता क्यो करती? सक्षेपमें उनका यही कथन है, उनकी यही दलील है । उनने यह भी लिख मारा है कि आनेवाले ही मनुप्रोमे सावणि है । हमे कहना यही है कि केवल पौराणिक वातोके आधारपर गीताके श्लोकका अर्थ करना कभी उचित नहीं है, खासकर जब कि वे खुद मानते है कि गीताका समय बहुत पुराना और ब्राह्मणग्रथोके समकालीन या उनके बादका ही है। परन्तु पौराणिक काल तो बहुत इधरका है । गीताके "मासाना मार्गशीर्षोऽह" (१०।३५) श्लोकके, जो इसी अध्यायका है, अर्थमें ही उनने ये सारी बातें स्वीकार की है। हम तो कही चुके है कि ऋग्वेदमें ही सावर्णिका उल्लेख है और उसीको ये महाशय भावी मनु मानते है । वृहदारण्यकमे लिखे और वेदोमें भी माने गये सात महर्षियोको न मानके महाभारत या पुराणोके सातको माननेमे भी हमें आश्चर्य ही क्या सचमुच ज्यादा माननीय ये पुराण आदि ही है ? मगर वे भी तो ऐसा नही मानते । तब मनु और ऋषियोके ही वारेमें ऐसा होता है।