पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७११

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७३० गीता-हृदय जादू या करिश्मेकी वात न होके सृष्टिका दार्शनिक विवेचन है न ? फिर ये वेसिर-पैरकी वाते कैसी? एतां विभूति योग च मम यो वेत्ति तत्त्वतः । सोऽचिकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशय ॥७॥ मेरी अभी कही जानेवाली इस विभृति और योगका जो ठीक साक्षात्कार कर लेता है उसे सुदृढ योग की प्राप्ति हो जाती है, इसमे सशय (जरा भी) नही है 1७1 यहाँ "एता विभूति"का अर्थ है कि 'जिस विभूतिका वर्णन अभी होनेवाला है। 'तत्त्वतो वेत्ति'का अर्थ तत्त्वज्ञान या आत्मस्पेण साक्षात्कार ही है। इसीलिये उत्तरार्द्धके योगका अर्थ "सिद्धयसिद्धयो समो भत्वा” (२।४८) वाला ही योग है। क्योकि आत्मसाक्षात्कारके वाद वही योग प्राप्त होता और अचल रहता है। यहाँ इस कथनके दो अभिप्राय है । एक यह कि महर्षियो तथा मनुप्रोके अलावे भी जोई इसे जान जाय वही वैसा ही हो जाता है। दूसरा यह कि इसे जाने विना काम चलनेका नही । जो जानेगा वही पक्का योगी होगा। इसलिये इसे जानने- का यत्न पूरा-पूरा होना चाहिये। इस तरह अर्जुनके दिमागको इसके लिये तैयार किया गया है। जो लोग समझते है कि भगवान वडा दयालु है , अतएव उसकी प्रार्थना वगैरह करनेसे वह कृपा करता और निस्तार करता है, वह भूलते है। यहाँ कृपाका प्रश्न हई नही । भगवान तो समस्त शक्तियोका सर्वप्रधान स्रोत है। वहीसे सारी चीजे चलती है, फैलती है, विराट् या विश्वल्पके निरुपण और विभूतियोंके विवेचनके भीतर यही आशय छिपा है । यह तो मालूम ही है कि जो सोतेमे जायेंगे, डुबकी लगायेगे वह शीतल होगे, स्नान करेगे, पवित्र होगे। इसमें सोतेकी दया-मायाका कहाँ सवाल प्राता है ? पके फलोंसे लदे पेडके पास जाने पर फल भी मिलेगे और वृक्षकी