दसवाँ अध्याय ७३१ कृपाकी बात आयेगी भी नहीं। यही है वास्तविक दृष्टि । इसी दृष्टिसे हमे उधर जाना चाहिये, उधर बढना होगा। आगेवाले चार श्लोक इसीका स्पष्टीकरण करते है। अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्व प्रवर्तते । इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ॥८॥ मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् । कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति ॥६॥ मैं ही सभी चीजोका मूल स्रोत हूँ और मुझीसे सभी चीजें बाहर जाती है, विवेकी लोग यही समझके पूर्ण श्रद्धा-भक्तिके साथ मुझे भजते है। अपने चित्त और इन्द्रियोको मुझीमे लगाके परस्पर एक दूसरेको समझाते-बुझाते और निरन्तर मेरी ही चर्चा करते हुए वे मुझमे ही रमते और सतुष्ट रहते है ।८।६। यहाँ प्राणका अर्थ इन्द्रियाँ ही है। उपनिषदोमे उन्हे भी प्राण कहा है। वायुरूपी प्राणोको कही भी रोकें । मगर आत्मा या परमात्मामे उन्हे कभी लगा नही सकते, यह मानी हुई बात है । तेषां सततयुक्ताना भजतां प्रीतिपूर्वकम् । ददामि बुद्धियोग तं येन मामुपयान्ति ते ॥१०॥ तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानज नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥११॥ निरन्तर मुझीमे लगे (और) मुझे ही प्रेमपूर्वक भजनेवाले उन लोगो- को वह आत्मसाक्षात्कार रूपी बुद्धियोग प्राप्त करवा देता हूँ जिससे वे मुझे प्राप्त हो जाते है। (यह यो होता है कि) उन्ही पर अनुकम्पा करके (तथा) उनकी आत्माके रूपमे ही विदित होके उस प्रचड ज्ञानदीपसे 'उनके अज्ञान-मूलक हृदयान्धकारको खत्म कर देता हूँ।१०।११। बस, इतना कहना था कि अर्जुनका दिमाग साफ हो गया, उसमे तमः।
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