पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ग्यारहवाँ अध्याय ७४७ बस अर्जुनका यह कहना था और कृष्णने अपना नाटक फौरन ही फैला ही तो दिया। वे तो पहलेसे ही इसके लिये तैयार बैठे थे कि आखिरी काम यही करना होगा। उनके जैसा विज्ञ सूक्ष्मदर्शी भला ऐसा समझे क्यो नही ? इसीलिये- श्रीभगवानुवाच पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः। नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ॥५॥ श्रीभगवान कहने लगे-हे पार्थ, मेरे सैकडो (और) हजारो तरहके वहुरगी, अनेक आकारवाले दिव्य रूपोको देख लो।५। अर्जुन पीछे कही घबरा न जाये, इसीलिये उसे पहले ही सजग कर देते है कि अजीव चीजे देखनेको मिलेगी, जो कभी दिमागमे भी नही आई होगी। पश्यादित्यान्वसून् रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा । बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत ॥६॥ इहकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् । मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्रष्टुमिच्छसि ॥७॥ न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा । दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् ॥८॥ हे भारत, (द्वादश) आदित्यो, (आठ) वसुनो, (एकादश) रुद्रो, दोनो अश्विनीकुमारो, (तथा उनचास) मरुतोको देख लो (और) पहले कभी न देखे बहुतेरे आश्चर्यजनक पदार्थ भी देख लो। हे गुडाकेश, आज यही पर मेरे शरीरमें ही चराचर जगतको एक ही जगह देख लो और जो कुछ और भी देखना चाहते हो (सो भी देख लो) । लेकिन अपनी इन्ही, आँखोसे तो मुझे (उस तरह) देख सकते नही। (अत ) तुम्हे दिव्य