पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७३

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श्रात्माका स्वरूप ५६ आत्माका स्वरूप यह ठीक है कि योग या कर्मयोगकी बात तो ४७वे श्लोकसे ही शुरू होती है और दो श्लोकोमे उसके स्वरूपको अच्छी तरह बताके उसीका विवेचन आगे किया है । लेकिन ३६-४६ श्लोकोमे उसी योगकी महत्ता- सूचक स्वतत्र प्रस्तावना दी गई है। यह समूचे गीतोपदेशकी प्रस्तावना न होके सिर्फ उसी योगकी है। इसीलिये हमने इसे स्वतत्र कहा है । यह भी बडे कामकी चीज है, खासकर योग-सम्बन्धी आगेकी बाते समझने और पिछली बातोके साथ सम्बन्ध जाननेके लिये। यह योग तो गीताकी खास देन है यह पहले ही कहा जा चुका है । इसीलिये इसपर ज्यादा प्रकाश डालना जरूरी है। इसी दृष्टिसे इसकी स्वतत्र प्रस्तावनाके ८ श्लोकोके साथ ही तत्त्वज्ञान सम्बन्धी पहलेके ११-३८ श्लोकोपर भी एक निगाह डालनेकी आवश्यकता है। ऐसा करते ही मालूम हो जाता है कि ११-३० श्लोकोमे तो आत्माकी अजरता, अमरता, निर्विकारिता और नित्यताका प्रतिपादन बहुत अच्छी तरह किया गया है। यह ठीक है कि वह प्रतिपादन यहाँ स्वतत्र नहीं है, किन्तु स्वधर्म और स्वकर्मकी कर्तव्यताकी पुष्टिके ही लिये किया गया है । इसीसे यह भी निर्वि- वाद हो जाता है कि गीतोपदेशकी भित्तिकी बुनियाद अध्यात्मवादसे ही बनी है। इसीलिये शुरूमे वही बात आई है। मरने-मारनेके तथा हिसा- अहिंसाके ही खयालसे तो अर्जुन स्वकर्मसे विचलित हो रहा था। कृष्णने शुरूमें ही उसकी जड ही काट दी । उनने कह दिया है कि मरने-मारने तथा हिंसा-अहिंसाका खयाल तो महज नादानी है । भीष्मादिकी आत्मा तो मरती नही और न दूसरोको मारती है। क्योकि सभी आत्माये अविनाशी और निर्विकार है । फिर हिंसा-अहिंसाकी बात ही कहाँ रही रह गई उनके शरीरोकी बात ।