संन्यास और त्याग भी जब वह निरन्तर चालू रहे और बीचमे विराम होने न पाये । मनके निरोधको ही तो समाधि कहते है। फलत उसके निरोधके लिये जो अभ्यास किया जाता है उसके बारेमे योगदर्शनके समाधिपादमे पतञ्जलिने साफ ही कह दिया है कि श्रद्धापूर्वक निरन्तर बहुत दिनो तक करते रहनेपर ही वह दृढ होता है,-"स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारा- सेवितो दृढभूमि” (१४) । तब इसमे कर्मकी जरा भी गुजाइश कहाँ रह जाती है ? उसकी तो जरूरत तभी तक थी जबतक कि आत्मदर्शनकी तरफ मनका झुकाव नहीं हुआ था। अब वैसा होनेपर तो कर्मोंका त्याग नितान्त आवश्यक हो जाता है। हाँ, आत्मदर्शन हो जाने के वाद भले ही कर्म कर सकते है । क्योकि तब तो खामखा कर्मोके छोडनेका सवाल रही नहीं जाता। पुराने सस्कारोके वलसे आत्मज्ञानी लोग दोनो ही तरहके होते है, जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है। कर्मयोगी भी होते है, जैसे जनक आदि और सन्यासी भी, जैसे शुकदेव आदि। पहले तो भगवदर्पण बुद्धि वगैरहसे ही कर्म करते है। फिर ज्ञानके वाद कर्त्तव्यबुद्धिसे या विशुद्ध लोकसग्रहकी ही दृप्टिसे। यही बात ५६से ६५ तकके श्लोकोमे कहके और इसीपर जोर देके ६६वेमे सन्यासके स्वरूपवाले प्रश्नका उत्तर देते हुए साफ कह दिया है कि "सभी धर्मकर्मोको छोड़के अद्वितीय परमात्मा (आत्मा)की शरण जामो- आत्मज्ञान प्राप्त करो। उसीके फलस्वरूप सभी पुण्यपाप रूप बन्धनोसे छुटकारा हो जायगा। फिक्र मत करो"--"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेक शरण व्रज । अह त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच ।" पहले इसी चीजको भक्तिके भी नामसे ५४वे श्लोकमे कहा है और ५५वे मे बताया है कि यह भक्ति अद्वैत ब्रह्मज्ञानके सिवाय और कुछ नही है । सातवे अध्यायके "चतुर्विधा भजन्ते मा" आदि १६-१६ श्लोकोमे भी अद्वैत ज्ञानको ही सबसे ऊँचे दर्जेकी भक्ति कहा है। इसीलिये जो लोग इस श्लोकमे शरणा-
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