पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७३६

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७५६ गीता-हृदय यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु । एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम् ॥४२॥ साथी समझके (और) आपकी महिमाको इस तरह न जानके (कभी) जो आपको अपमानके रूपमे हे कृष्ण, हे यादव, हे साथी इस तरह मैंने प्रमादसे या प्रेमके चलते ही कह दिया हो, और हे अच्युत, हँसी-मजाकम जो घूमने-फिरने, सोने, बैठने या भोजनके समय अकेलेमे या लोगोंके सामने आपका अपमान कर दिया हो, उसके लिये अपरम्पार महिमावाले आपसे क्षमा चाहता हूँ।४११४२॥ पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुगरीयान् । न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ॥४३॥ हे ससारभरमे अतुल प्रभाववाले, तुम इस चराचर ससारके पिता हो, पूज्य (हो), (और) गुरुके भी गुरु (हो) । तुम्हारी बराबरीका तो कोई हई नही, बडा कोई कैसे होगा ?४३। तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय काय प्रसादये त्वामहमीशमीडयम् । पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रिय. प्रियायार्हसि देव सोढुम् ॥४४॥ इसीलिये साष्टाग प्रणाम करके ईश्वर और स्तुति-योग्य आपका खुश करना चाहता हूँ। हे देव, जैसे पुत्रका अपराध पिता, साथीका साथी और स्त्रीका पति क्षमा कर देता है वैसे ही आप मेरी भूलें भी क्षमा कर दें।४४। यहाँ उत्तरार्द्धमें 'प्रियाया'का 'अर्हसि के साथ सम्बन्ध होनेपर व्याकरणके अनुसार 'प्रियाया अहंसि' यही होना चाहिये, न कि सन्धिके करते प्रकार विलुप्त हो जायगा, या 'प्रियाया'के 'या'के आकारमें मिल जायगा। किन्तु गीतामें तो ऐसा बहुत वार हुआ है । और तो और इसीसे तीन ही श्लोक पहले हे सखे इतिका हे सख इतिकी जगह हे सम्वेति कर दिया है। वहाँ भी ठीक इसी तरहका नियम लागू है। मगर इसकी